विचार: “बांग्लादेशी हिंदू और हंगरी के यहूदी”

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*वैसे लड़ते हुए सियारो को किसी कंटीले बाडे में बंद करके छोड़ देना भी एक विकल्प है*

सियारों के गिरोह जब आपस में लड़ते हैं तो एक वक्त ऐसा आता है कि उन्हें खुद यह नहीं पता होता कि वे किससे और किसके लिए लड़ रहे हैं। यही स्थिति धर्मांध लोगों की भी होती है। उनकी लड़ाई तो धर्म की रक्षा के नाम पर शुरू होती है और आखिर में वे अपने समाज, देश, संस्कृति और धर्म, इन सबको नुकसान पहुंचाते हैं। यही स्थिति इन दिनों बांग्लादेश में देखने को मिल रही है। दुर्गा पूजा उत्सव के दौरान शुरू हुए दंगे किसी न किसी रूप में लगातार जारी रहे। दंगों के स्वरूप और हमलों की प्रकृति से यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इनकी तैयारी पहले से ही थी और इसके लिए केवल एक अवसर की तलाश थी।
जिस घटना के आधार पर इन दंगों की शुरुआत बताई जा रही है, वैसा काम कोई मूर्ख व्यक्ति ही करेगा। सच्ची आस्था वाला कोई भी व्यक्ति चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो या किसी और धर्म का मानने वाला हो, वह कभी नहीं चाहेगा कि उसकी धार्मिक गतिविधि के दौरान किसी दूसरे धर्म की किताब या प्रतीकों की मौजूदगी रहे। जो विवरण सामने आ रहे हैं, उन से पता लग रहा है कि अब ये दंगे केवल हिंदू समुदाय तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनके दायरे में ईसाई, बौद्ध और दूसरे अल्पसंख्यक लोग भी आ गए हैं।
यदि पाकिस्तान या अफगानिस्तान में ऐसे दंगे हो रहे होते तो हम स्वाभाविक रूप से मान लेते हैं कि इन देशों की मूल प्रकृति यही है, लेकिन बांग्लादेश के संबंध में ऐसा कहना, मानना सम्भवतः ठीक नहीं होगा। बांग्लादेश दुनिया के उन इक्का-दुक्का देशों में से एक है, जिसकी स्थापना की जड़ में सांस्कृतिक मूल्य मौजूद रहे हैं। बंगाली लोगों ने अपनी भाषा और संस्कृति को हमेशा ही मजहब से ऊपर रखा है। यदि यहां भी मजहब भाषा और संस्कृति से ऊपर होता तो फिर इसके पाकिस्तान से अलग होने की कोई वजह पैदा नहीं होती।
फिर, ऐसा क्या हुआ होगा कि कुछ दशक के भीतर ही बांग्लादेश एक कट्टर समाज में परिवर्तित होने की आशंका से सराबोर हो गया। यह सवाल बहुत गम्भीर उत्तर की मांग करता है। वैसे, जो बात बांग्लादेश के संदर्भ में कही जा रही, उसी बात को थोड़ा आगे-पीछे करके भारत के संदर्भ में भी देख सकते हैं। जब भी मिली-जुली संस्कृति और समावेशी समाज वाला कोई देश किसी एक खास धर्म और एक खास संस्कृति पर जोर देने लगता है तो वहां लगभग ऐसे ही परिणाम आते हैं जैसे कि बांग्लादेश में आ रहे हैं।
भले ही बांग्लादेश का राष्ट्रीय धर्म इस्लाम है, लेकिन इस देश ने अपनी संवैधानिक और राजनीतिक व्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता को स्थान दिया हुआ है। इसका श्रेय बहुत हद तक बांग्लादेश के राष्टपिता बंग-बंधु और कुछ हद तक इंदिरा गांधी को भी जाता है, लेकिन धर्मनिरपेक्षता का स्थान कब तक कायम रहेगा, इसे लेकर अब शंका जताई जा रही है। विश्वसनीय मीडिया माध्यमों पर भरोसा करें तो इस तरह की रिपोर्ट सामने आ रही हैं कि गैर मुस्लिम बांग्लादेशी अब इस देश में अपने भविष्य को सुरक्षित नहीं देख रहे हैं। यदि यह सच है तो बांग्लादेश जैसे किसी भी राष्ट्र के लिए यह बहुत डरावनी स्थिति होगी। इसका यह मतलब भी लगा सकते हैं कि आने वाले वर्षो में यहां से अल्पसंख्यक धर्मावलंबियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष तौर पर पलायन शुरू होगा और उसका सबसे बड़ा बोझ था भारत पर ही पड़ेगा।
बताया जा रहा है कि बांग्लादेश की आबादी में हिंदुओं की संख्या लगभग 9 फीसद है। बौद्ध, ईसाई आदि को मिलाकर अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 15% हो जाती है। क्या दुनिया का कोई भी देश, चाहे वह भारत ही क्यों ना हो, इन 15% यानी 2 करोड़ से अधिक लोगों को अपने यहां संभालने की स्थिति में है! इसका जवाब पूरी तरह से नहीं में है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों को अपने देश के भीतर ही अपनी स्थिति को न केवल संभालना होगा, बल्कि मजबूत भी करना होगा।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हंगरी से जुड़ा हुआ एक संस्मरण/किस्सा अक्सर उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। जर्मनी के प्रभाव में वहां की सरकार ने यहूदियों की एक सूची तैयार की ताकि उन्हें देश से बाहर निकाला जा सके। उस वक्त हंगरी की आबादी में यहूदियों की संख्या 1% के आसपास थी, लेकिन उन्होंने अपने बल पर हंगरी की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था में इतना बड़ा योगदान दिया हुआ था कि तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के लिए यहूदियों को देश से बाहर निकाल पाना संभव ही नहीं हुआ। यदि सरकार ऐसा करती तो हंगरी आर्थिक सामाजिक तौर पर भी तबाह हो जाता।
यह घटना कितनी सच है या कितनी गलत है, इसे तो इतिहास के लोग बेहतर जानते हैं, लेकिन इसका संदेश महत्वपूर्ण है। दुनिया में जहां भी अल्पसंख्यक समुदाय हैं, वे अपनी योग्यता, क्षमता के उल्लेखनीय प्रदर्शन से ही संबंधित देश और समाज में अपनी स्थिति को सुरक्षित कर सकते हैं। पड़ोस का कोई देश या पड़ोसी देश के लोग महज सम्वेदना व्यक्त कर सकते हैं या समर्थन में आवाज उठा सकते हैं। लेकिन इससे कोई समाधान हासिल नहीं होता। और बाहर से उठती हुई आवाजों पर भी अक्सर यकीन करना मुश्किल हो जाता है।
इस वक्त ऐसे-ऐसे आंकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि बांग्लादेश दुनिया की सबसे नारकीय जगह बन गई है। आंकड़ों में बताया जाने लगता है कि 1951 में जो हिंदू 22 फीसद थे, वे अब 9 फीसद रह गए हैं, लेकिन इन्हीं आंकड़ों का एक दूसरा पहलू भी है।बांग्लादेश में 1951 में जो 90 लाख हिंदू थे, आज वे एक करोड़ 30 लाख से ज्यादा हैं। यानी इस अवधि में उनकी संख्या लगभग डेढ़ गुना हुई है। अब कोई इस बात पर अड़ जाए कि हिंदुओं को भी बांग्लादेशी मुसलमानों के बराबर ही बच्चे पैदा करने चाहिए तो यह तर्क किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है।
पिछली एक शताब्दी में किसी खास धर्म या संस्कृति के लोगों ने बहुत ज्यादा बच्चे पैदा करके किसी देश या दुनिया के किसी खास इलाके का धार्मिक परिदृश्य बदल दिया, हो ऐसा कोई उदाहरण मौजूद नहीं है। सच्चाई यही है कि बांग्लादेशी हिंदुओं को अपने देश में ही अपनी जगह तलाश करनी है क्योंकि आज की दुनिया उतनी भी उदार नहीं है, जितनी कि अब से 25-30 साल पहले तक थी। (क्या भारत के अतिराष्ट्रवादी 2 करोड़ बांग्लादेशियों को यहां बसा पाएंगे! )
यही बात भारत के मुसलमानों पर भी लागू होती है कि यदि वे मुख्यधारा में बने रहना चाहते हैं तो आबादी बढ़ाकर नहीं, बल्कि हंगरी के यहूदियों की तरह डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वकील और उद्योगपति बन कर ही खुद को और सुरक्षित कर पाएंगे। कहीं और से उदाहरण लेने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं है कि भारत मे कुछ लाख की आबादी वाले पारसियों और यहूदियों ने देश में अपनी योग्यता के बल पर, वह सब कुछ हासिल किया है जिसके लिए बहुसंख्यक हिंदू भी अभी तक सपने ही देखते हैं। फिलहाल, बांग्लादेश की आवामी लीग सरकार पर इतना भरोसा तो किया ही जा सकता है कि वह संस्थानिक और व्यवस्थागत तौर पर हिंदुओं के खिलाफ कोई मुहिम नहीं चला रही है।
वैसे लड़ते हुए सियारों को किसी कंटीले बाड़े में बंद करके छोड़ देना भी एक विकल्प है। कुछ दिन में वे खुद ही एक-दूसरे का काम तमाम कर देते हैं।
(सुशील उपाध्याय)