नुकसान तो हमारा हुआ!

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-सुशील उपाध्याय

कोई लड़की हिजाब पहने या न पहने, किसी शिक्षक को इस पर किस तरह प्रतिक्रिया करनी चाहिए, यह काफी जटिल मामला है। सरकार की सहायता पर चलने वाले एक पोस्ट ग्रेजुएट काॅलेज के प्राचार्य के नाते मैं इस मुद्दे को निजी अनुभव के धरातल पर देखने की कोशिश करता हूं। उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के जिस ग्रामीण इलाके में ये महाविद्यालय संचालित है, वो मुसलिम बहुल इलाका है। इसी के चलते काॅलेज में करीब आधे स्टूडेंट्स अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखते हैं। कुल ढाई हजार की संख्या में मुसलमान लड़कियों का आंकड़ा 700 से अधिक है। पांच साल पहले तक काॅलेज आने वाली हरेक तीसरी लड़की बुर्का या हिजाब पहनकर आती थी। काॅलेज में यूजी और पीजी, दोनों स्तरों पर यूनिफाॅर्म लागू है। लड़कियों के इस पहनावे से न तो काॅलेज मैनेजमेंट को कोई समस्या रही और न ही कभी किसी शिक्षक या छात्र-छात्राओं की ओर से कोई सवाल आया। लेकिन, एक चुनौती जरूर थी कि यदा-कदा कुछ शरारती लड़के, ‘ओ बुरके वाली….’ जैसी अवांछित टिप्पणियां जरूर कर देते थे। पर, अनुशासन संबंधी सख्ती के चलते ये मामले कभी कोई बड़ा मुद्दा नहीं बने।
पर, एक प्राचार्य के तौर पर मेरे सामने यह सवाल जरूर था कि सभी लड़कियां एक साथ मुख्यधारा का हिस्सा किस प्रकार बनें, वो भी तब इस काॅलेज में 50 फीसद अल्पसंख्यकों के अलावा करीब 30 फीसद अन्य रिजर्व श्रेणी के स्टूडेंट्स हैं। सामान्य श्रेणी के छात्र-छात्राओं का हिस्सा मात्र 20 फीसद है। इससे साफ है कि काॅलेज परिसर में मुख्यधारा का निर्धारण अल्पसंख्यक और आरक्षित वर्ग के छात्र-छात्राएं करते हैं। इस मामले को समझने के लिए एक और तथ्य मदद करेगा, वो ये कि काॅलेज में 90 फीसद से ज्यादा स्टूडेंट्स अपनी परिवारों की पहली पीढ़ी हैं जो डिग्री स्तर की पढ़ाई करने आए हैं। ऐसे में लड़कियों की पढ़ाई का माहौल बन पाना किसी आश्चर्य से कम नहीं है क्योंकि उनकी पढ़ाई किसी की प्राथमिकता का मामला नहीं है। ऐसे में, यदि हिजाब या बुर्के का मसला उठ खड़ा हो तो सोचिये नुकसान किसे होगा! (काॅलेज मैनेजमेंट की पहल पर शिक्षकों और कर्मचारियों ने कई साल तक गांव दर गांव जाकर लोगों को इस बात के लिए तैयार किया कि वे 10-12वीं के बाद लड़कियों को घर पर न बैठाएं और उन्हें काॅलेज में पढ़ने के लिए भेजें। इस क्षेत्र में गरीबी के कारण अनेक लोगों के लिए बीए, बीएससी या बीकाॅम आदि के लिए साल भर में तीन हजार रुपये की फीस दे पाना भी आसान नहीं था, जबकि ये फीस सरकार वापस कर देती है। ऐसे में लड़कियों की पढ़ाई नहीं, बल्कि उनकी शादी करना ही बड़ा दायित्व था)
खैर, कुछ साल पहले हमारी महिला शिक्षिकाओं ने एक पहल की। उन्होंने लड़कियों के छोटे समूह बनाकर उनसे सामाजिक बराबरी, लड़कियों के अधिकार, पोषण-खानपान, पहनावा, नौकरी-कॅरियर के मुद्दों पर बात शुरू की। (इस मुहिम की चुनौतियों का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता था कि यहां की एक तिहाई से ज्यादा लड़कियों के लिए ‘पर्सनल हाइजीन’ कोई समस्या ही नहीं थी।) यह सिलसिला बीते पांच साल से अनवरत जारी है। लड़कियों को अहसास कराया गया कि ये काॅलेज परिसर उनके घर का एक्सटेंशन एरिया है, शिक्षकांे की भूमिका उनके अभिभावक की तरह ही है और यहां वे हर तरह से आजाद हैं, सुरक्षित हैं। इसका परिणाम यह निकला कि सैंकड़ों लड़कियों ने अपनी निजी, पारिवारिक और आर्थिक परेशानियों को शिक्षकों के साथ साझा करना शेयर किया। भरोसा निर्माण की इस प्रक्रिया में खुद हम लोगों को भी पता नहीं चला कि कक्षाओं में से बुर्का और हिजाब कब गायब हो गया। ये लड़कियां अपने घरों से अब भी बुर्के और हिजाब में ही आती हैं, लेकिन काॅलेज आते ही उसे अपने बैगों में रख लेती हैं। पढ़ाई करके घर वापस जाती हैं तो फिर पहन लेती हैं। किसी ने कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की, उनकी आस्था के खिलाफ कोई बात नहीं की। बस इतना समझाया कि पूरे समूह का चरित्र एक जैसा होना चाहिए। कोई अपने पहवाने के आधार पर अलग से चिह्नित नहीं होना चाहिए। ये बात लड़कियों की समझ में आसानी से आ गई। लेकिन, इस मामले में यदि नियम के डंडा चलाकर लोगों को कहा जाए कि वे बुर्का और हिजाब न पहनें तो फिर इसका परिणाम नकारात्मक ही होगा।
यह बात केवल बुर्का या हिजाब पहनने तक नहीं है। कुछ मामलों में हिंदू लड़कियों पर भी यही स्थिति लागू होती है। इस इलाके में ज्यादातर लड़कियों की शादियां 18-20 साल की उम्र में कर दी जाती हैं। एमए, एमएससी तक पहुंचते-पहुंचते बहुत कम लड़कियां ऐसी होंगी, जिनकी शादी न हुई हो। शादी के बाद जो लड़कियां काॅलेज आती हैं, उनका पहनावा बदलने लगता है। पांवों में घुंघरुओं वाली पाजेब, मांग में सिंदूर और रंगीन कपड़े, फैंसी जूते-चप्पले और सजावटी बैग, उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाते हैं। इससे भी बड़ी बात ये कि लड़कियों की ससुराल की महिलाएं सफेद दुपट्टा (ओढ़नी) नहीं पहनने देती क्योंकि इस इलाके में हिंदुओं में विवाहित लड़कियों को सफेद कपड़े को शुभ नहीं माना जाता। पुराने दौर की महिलाएं अपनी बहुओं को, जो कि हमारी छात्राएं हैं, उन्हें यूनिफाॅर्म में घर से बाहर नहीं निकलने देती। अब, इस समस्या का समाधान क्या हो, जिसका पढ़ाई से कोई सीधा संबंध नहीं है। यदि सख्ती की जाए तो इन विवाहित लड़कियों की पढ़ाई तुरंत बंद हो जाएगी। इसका आसान रास्ता ये निकाला गया कि लड़कियों को सफेद दुपट्टे की बजाय उनके कुर्ते के रंग के दुपट्टे की अनुमति दे दी गई। (जिससे वे सिर ढककर रख सकें। शादी के बाद सिर ढककर घर जाना एक अनिवार्य नियम है।) इसी तरह मुसलिम लड़कियों को छूट दी गई कि भी कुर्ते के रंग से मिलते हुए कपड़े से अपना सिर ढक सकती हैं, आप इसे चाहे ंतो हिजाब कह सकते हैं, लेकिन ये नकाब नहीं है। काॅलेज प्रबंधन, शिक्षक और समुदाय के लोग जब इस बारे में सोचते हैं तो लगता है कि कुछ सालों के भीतर लड़कियों में बड़ा बदलाव दिख रहा है, काॅलेज में दो-तीन सालों से कुछ गिनी-चुनी लड़कियों ने सलकार-कुर्ते की बजाय पेंट-शर्ट के विकल्प को यूनिफाॅर्म के रूप में भी चुना है। लेकिन अब कर्नाटक के प्रकरण ने हम जैसे लोगों की चुनौती को नए सिरे से बढ़ा दिया है।
उत्तराखंड में बीते दिनों विधानसभा चुनाव के कारण मुझ सहित ज्यादातर शिक्षक और कर्मचारी चुनाव ड्यूटी पर थे। करीब डेढ़ महीने के अंतराल पर अब काॅलेज में पूर्ववत पढ़ने-पढ़ाने की गतिविधियां शुरू हुई तो एक बड़ा नकारात्मक बदलाव दिखा कि अनेक लड़कियां उसी स्थिति में आ गईं जहां वे पांच साल पहले थीं। मुझे आश्चर्य भी हुआ और दुख भी। इस बारे में शिक्षकों से बात की तो उन्होंने सुझाव दिया कि इस वक्त मामला गर्म है इसलिए इस पर कोई बात न की जाए। लेकिन, मेरा मन नहीं माना। कुछ लड़कियों से व्यक्तिगत स्तर पर बात की तो उन्होंने बताया कि घर वालों ने शर्त रखी है कि हिजाब पहनकर जाने और पूरे वक्त पहने रहने पर ही पढ़ाई जारी रखने की अनुमति मिलेगी। ये लड़कियां नहीं चाहती कि इस बारे में कोई शिक्षक उनके परिजनों से बात करे। उन्हें डर है कि ऐसा करने पर लड़कियों को गलत समझ लिया जाएगा। मैनेजमेंट, प्राचार्य और शिक्षक, इनमें से कोई नहीं चाहता कि लड़कियों केी पढ़ाई बंद हो। ऐसे में बीच का रास्ता यही है कि किसी भी तरह की सख्ती से बचा जाए। (हालांकि, मैं निराश नहीं हूं। हम नए सिरे से फिर कोशिश करेंगे और सफल भी जरूर होंगे।)
वस्तुतः ये बात हिजाब तक की नहीं है, ये बात एक प्रगतिशील सोच पैदा करने और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की प्रक्रिया को धक्का लगने की है। एक शिक्षक के तौर पर मेरा अनुभव कहता है कि डंडे के बल पर प्रगतिशीलता का विस्तार नहीं हो सकता। कर्नाटक में जिन लोगों ने ये विवाद खड़ा किया है, उन्हें अंदाजा भी नहीं होगा कि हमारे जैसे दूरदराज के काॅलेज और यहां के पिछड़े समाज में इसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी। फिलहाल, असली नुकसान हमें और हमारी लड़कियों को ही हुआ है। एक तरफ, सोचता हूं कि देहरादून के एक विश्वविद्यालय में पढ़ रही मेरी अपनी बेटी की तरह ये लड़कियां भी नए जमाने के तौर-तरीके सीखें, उसमें ढल जाएं और खुद को जिंदगी की चुनौतियों के लिए तैयार करें। और दूसरी तरफ अचानक कोई गिरोह इनके सिर पर हिजाब या इनके पांवों में घुंघरुओं वाली पायल डालकर कहता है कि ये ही असली आजादी है।