व्यंग्य: छुटभैये नेताजी की चुनावी होली

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– डॉ.मुकेश कबीर
इस बार होली पर सबसे ज्यादा कलर विहीन रहेंगे छुटभैये नेताजी,उनकी मजबूरी है कि जिन भाई साब ने पिचकारी दिलाई थी वो खुद तो दूसरी पार्टी में चले गए,और जिनके ऊपर पिचकारी चलानी थी वो इस पार्टी में आ गए। छुटभइयों का रोना यह है कि उन भाई साहब ने पिचकारी तो दिला दी थी लेकिन रंग नहीं भरवाया और इन भाई साब का कहना है कि बेटा पिचकारी उनकी है तो रंग हम क्यू भरें,जाओ उन्हीं के पास या फिर पिचकारी भी हम से लो और चलाओ उनके ऊपर । यह बात तो बहुत सीधी है लेकिन इतनी सीधी भी नहीं क्योंकि जो पिचकारी उन भाई साब ने दिलाई थी उसको तो कई सालों से चला रहे थे, उनकी पिचकारी का सारा आईडिया था कैसे चलेगी किस पर चलेगी कब चलेगी कितनी चलेगी बिल्कुल ऑटोमेटिक जैसे हो गए थे, इधर भाई साहब ने बोला और उधर पिचकारी का खटका दबा ,खटका दबा और काम पूरा अब किसके ऊपर चली, कितनी चली कैसी चली यह सब डिपार्टमेंट भाई साहब संभालते थे,भाई साब बहुत माहिर थे रंग बदलने में वो इस पिचकारी के सारे रंग जानते थे और इस रंग को उस रंग का रूप देने में भी माहिर थे लेकिन अब तो भाई साब खुद ही नए रंग को समझने में लगे हैं वो खुद डरे हुए हैं कि उधर का रंग इधर न दिख जाए इसलिए होली पर वो भी ज्यादा रंगीन नहीं हैं क्योंकि अब भाई साब के मन में एक डर यह भी है कि होली के ठीक बाद चुनाव है और चुनाव परिणाम के बाद फिर से रंग बदलना पड़ा तो ? इसलिए भाई साब खुद अपने रंग नहीं दिखा रहे लेकिन वो तो भाई साब हैं मैनेज करना जानते हैं उनके पास तो रंगों की कमी नही है रंगदारी उनका पुश्तैनी धंधा रहा है इसलिए सभी रंग वाले उन्हें अपना समझकर अपना लेते हैं लेकिन जो छुटभैया हैं उनके पास न तो रंग होता है न पिचकारी सब कुछ भाई साब का ही था इतने सालों से उनके कहने से पिचकारी चला रहे कि हाथ भी उनके रंग के ही हो गए,अब उन हाथों से इनकी पिचकारी चलाएं भी तो “हाथ” का रंग तो सारी पोल खोल ही देगा न कि ये तो उनका है फिर इनका रंग क्यूं डाल रहा है और भाईसाब से ज्यादा चुनाव परिणाम की चिंता छुटभइयों को है क्योंकि भाई साब तो बच ही जाएंगे, उनका काम तो बस रंग डलवाना है लेकिन सामने आकर रंग तो छुटभैये नेताजी को ही डालना पड़ता है और आजकल तो सी सी टीवी का जमाना है वो तो सिर्फ पिचकारी चलाने वाले को ही जानता है ।उसमे रंग किसने डलवाया, किसके लिए डलवाया इतना दिमाग सी सी टीवी में कहां होता है,वो तो सीधा सीधा छुटभैये नेताजी का ही फोटो छाप देगा ना इसलिए वे कह रहे हैं कि भैया हम तो इस बार होली नहीं खेलेंगे लेकिन दिक्कत यह है कि वे सोचने वाले होते कौन हैं ? उनके लिए सोचने का काम भी तो भाई साब ही करते थे और भाई साब सोच विचार करके उधर चले गए लेकिन पता नहीं क्या सोचकर पिचकारी इधर ही छोड़ गए। अब छुटभैये नेताजी क्या करें समझ नहीं आ रहा क्योंकि समझने का काम भी भाई साब का ही था। अब वे सोच रहे हैं कि चलें क्या भाई साब से ही पूछकर आएं लेकिन दिक्कत यह है कि बड़े भाई साब तो अभी भी इधर ही हैं इनको बुरा लग गया तो ? चलो इनसे ही पूछ लेते हैं कि भाई साब हम क्या करें लेकिन बड़े भाई साब क्या बोलेंगे क्योंकि इनके लिए बोलने का काम तो वो पेले वाले भाई साब ही करते थे। तभी दूसरे छुटभैये ने दिमाग लगाया कि यार सारी समस्या की जड़ ये सी सी टीवी है इसको उखाड़ के फेंक देते हैं फिर किसी को क्या पता चलेगा कि पिचकारी हमने चलाई…और बस भाई साब रंगदारी में बिजी हो गए और छुटभैये सीसीटीवी उखाड़ने में, छुटभैयों की होली ऐसी ही होती है इसलिए आप भी सिर्फ अपनी होली का सोचिए कि कैसे खेलना है । यहां सबकी अपनी होली हैं अपना रंग है अपना ढंग है फिर आप और हम तो न भाई साब हैं ना छुटभैए ,हमारी स्थिति तो छुटभैयों से भी बदतर है, हम होली सिर्फ देखते हैं,पहले टीवी पर देखते थे अब मोबाइल पर देखेंगे,देखने में जो मज़ा है वो खेलने में नही इसलिए देखते रहिए आज तक ,कल तक जब तक टीवी और मोबाइल में रिचार्ज है तब तक देखते रहिए होली के रंग बस बुरा मत मानिए बुरा न मानो होली है ।(विफी)