– विवेक रंजन श्रीवास्तव
हमारे मनीषियों द्वारा समय समय पर पर्व और त्यौहार मनाने का प्रचलन ऋतुओं के अनुरूप मानव मन को बहुत समझ बूझ कर निर्धारित किया गया है। जब ठंड समाप्त होने लगती है, गेंहूं चने की नई फसल आने को होती है, मौसम में आम की बौर की महक की मस्ती छाने लगती है, बाग बगीचों में, जंगलों तक में टेसू व अन्य फूल खिले होते हैं तब फागुन की पूर्णिमा की रात लकडिय़ों व उपलों से बनी होली का विधिवत पूजन कर, गुझिया पपड़ी आदि पकवानों का भोग लगा कर होलिका दहन किये जाने की परम्परा है। इस बहाने लोग एकत्रित होते हैं, उत्सवी माहौल में नाचने गाने मिलने मिलाने और किंचित पनपी परस्पर कुंठायें व वैमनस्य भूल कर नई शुरुवात करने के अवसर उत्पन्न होते हैं। दूसरी सुबह लोग रंग गुलाल लगा कर खुशियां साझा करते हैं।
सारी दुनिया की विभिन्न सभ्यताओं में रंगो से मन का उल्लास प्रगट किया जाता है होली की ही तरह रंगो के तथा अग्नि जलाने के अनेक त्यौहार विश्व के अलग अलग भूभाग पर अलग अलग समय में अलग अलग नामों से मनाये जाते हैं, जो किंचित सभ्यताओ के मिलन या परस्पर प्रभाव जनित हो सकते हैं किन्तु यह तथ्य है कि होली भारत का अति प्राचीन पर्व है, जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव भी कहा जाता है. यह पर्व अधिकांशत: उत्तरी भारत में प्रमुखता से मनाया जाता है।
होली मनाये जाने का उल्लेख कई पुरातन पुस्तकों में भी मिलता है जैसे जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र , नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों में भी होली का वर्णन मिलता है। प्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का उल्लेख किया है। भारत के अनेक मुसलमान कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होली का त्यौहार केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते थे। अकबर और जोधा तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह, बहादुर शाह जफ़ऱ के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर होलिका दहन व रंग खेलने के चित्र देखने मिलते हैं. विजयनगर की राजधानी हंफी के 16वीं शताब्दी के एक चित्र फलक पर राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है।
संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में रंग नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही वसन्तोत्सव को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को होली वर्णन प्रिय रहा है।
राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कवियों ने किया है। सूफ़ी संत हजऱत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह जफ़ऱ जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। आधुनिक हिंदी कहानियों में प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूपों के वर्णन देखने को मिलते हैं। भारतीय फिल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को प्रमुखता व सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है।
वैष्णव व शैव संप्रदायों ने होली की व्याख्या अपने अपने इष्ट के अनुरूप कर ली थी। होलिका दहन की प्रह्लाद की सुप्रसिद्ध कथा के अतिरिक्त यह पर्व राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जोड़ कर मनाया जाता है तो दूसरी ओर शैव संप्रदाय का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं।
वर्तमान स्वरूप में होली का त्यौहार सार्वजनिक उत्सव के रूप में ही अधिक लोकप्रिय हो चला है। मोहल्लो के चौराहो, क्लबो, सोसायटियों में या सार्वजनिक मैदाननों पर युवको की टोलियां सार्वजनिक चंदे से होली का झंडा गाड़कर उसके चारो और लकडिय़ां लगाकर और होलिका व प्रहलाद की मूर्तियां सजाकर विद्युत प्रकाश से रंगबिरंगी सजावट कर डी जे पर गीत संगीत बजाकर होली का दहन का आयोजन करते हैं। पारम्परिक रूप से गांवो में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है, इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को बहने भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक देती है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नजऱ भी जल जाए। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। कटते जंगलो को बचाने और व्यर्थ जलाई जाती लकड़ी के अपव्यय को रोकने के लिये इस वर्ष गोबर के कंडो की ही होली जलाने की अपील नेताओ द्वारा की जाती दिख रही है यह शुभ संकेत है, हमेशा से हिन्दू परम्परायें समय के साथ नव परिवर्तन को स्वीकारती आई हैं। यह परिवर्तन भी पर्यावरण की रक्षा हेतु उठाया जा रहा एक स्वागतेय कदम है।
होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है, इस दिन लोग गुलाल और रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैंन बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने, कविताओं, हास्य विनोद के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
घरों में गुझिये, खीर, पूरी कचौड़ी, दही बड़े आदि विभिन्न व्यंजन बनाये जाते हैं, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं।
स्थानीय परम्पराओं के साथ होली का पर्व मनाने में विभिन्नता परिलक्षित होती है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है. बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है, जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला शक्ति प्रदर्शन तो तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोत्सव है। मणिपुर में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है, दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के श्रंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है। प्रत्येक परम्परा में आंतरिक उत्साह को प्रगट करने की शैली की विविधता भले ही हो पर मूल स्वरूप में होली कृष्ण लीला से जोड़ते हुये, प्रकृति से तादात्म्य बिठाते हुये उल्लास मनाने का पर्व है। (विफी)