– बद्री नारायण तिवारी
यदि बिना अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग, बिना युद्ध किए अपना लक्ष्य मिल जाये तो शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिये और यदि बिना युद्ध किये अभीष्ट नहीं मिलता तब भी शत्रु से वार्ता करनी चाहिये ताकि जब बल का प्रयोग हो तो जनमत का समर्थन अपनी ओर हो जाये। इसी नीति को श्रीराम ने रावण के दरबार में अंगद को भेजने की प्रक्रिया से अपनाया। साम, दाम, दण्ड भेद सभी नीतियों से काम लेना चाहिये। यही संकेत है। श्रीराम ने अंगद को भेजकर साम का प्रयोग किया है। राम ने सुग्रीव को अपने समर्थन में किया। हनुमान ने भेद से और हनुमान ने लंका का राज देकर राम से विभीषण को मिलाया। दण्ड से रावण को मारा। यदि उनको नीतिप्रतिपालक कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं। नीति में शत्रु को आतंकित करने का एक प्रमुख स्थान है। अंगद ने लंका में प्रवेश करते ही रावण के निशाचर पुत्र को मार दिया-
प्रभु प्रताप उस सहज असंका, रन बांकुरा बालिसुत बंका।
पुर बैठ न रावन कर बेटा, खेलत रहा होई गै भेंटा।
बातहिं बात करष बढिआई,
जुगल अतुल बल पुनि तरूनाई।
तेहि अंगद कहुं लात उठाई, गहि पद पटकेउ भूमि भवाई।।
निसिचर निकल देखि भट भारी, जहं तंह चले न सकहिं पुकारी।
एक एक सन मरमु न कहहीं, समुझि तासु वध चुप रहहीं।
भयउ कोलाहल नगर मझारी, आवा कपि लंका जोहि जारी।
अब धौं कहा करिही करतारा, अति सभीत सब करहिं विचारा।
बिनु पूछें मृगु देहि दिखाई, जेहिं विलोक सोई जाइ सुखाई।
गोस्वामी तुलसीराज ने आंतक की समाप्ति का सुंदर चित्रण किया है। शत्रु से युद्ध करने के पूर्व उसके साहस तथा आत्मविश्वास को कमजोर कर देना चाहिए। इसी कार्य को लंका जलाकर हनुमान जी ने किया।
जहां निसाचर रहहि ससंका, जब तें जारि गयौ कपि लंका।
निज निज गृह सब करहिं विचारा, नहिं निसचर कुलकेर उंबारा।
शत्रु को अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर प्रभावित करना, युद्ध में जितने छल-कपटों का प्रयोग हुआ हो उसका अध्ययन करना चाहिए। ताकि कोई छल का तुरंत / पुन: प्रयोग करे तो फौरन उसको पहचानकर तुरंत उपचार किया जा सके। तुलसी के शब्दों में-
जोजन भरि तेहि बदन पसारा, कपि तनु कीन्ह दुगुन विस्तारा।
सोरह योजन मुख तेहि ठयऊ, तुरत पवन बत्तिस भयऊ।
जस जस सुरसा बदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा।
निसिचर एक सिंधु मह रहई, करि माया नभु के खग गहई।
गहई छांह सके सो न उड़ाई एहि विधि सदा गगन चर खाई।
सोई छल हनुमान कहं कीन्हां तासु कपट कपि तुरतहिं चीन्हा।
ताहि मारि मारुत सुत वीरा, वारिध पार गयऊ मति धारा।
तुलसी के मतानुसार मतिधीर होना चाहिए जिस समय जो उपयुक्त हो उसी का प्रयोग करना चाहिये-
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह विचार। अति लघु रूप धरौ निसि नगर करो पइसार।
मसक समान रूप कपि धरी, लंकहि चलेयु सुमिरि नरहरि।
महान दूरदर्शी विश्व कवि तुलसी की दृष्टि में त्रेता युग के सर्वोच्च गुप्तचर को कहीं दासानुदास, सेवक कहीं महाशक्तिशाली रूप में प्रदर्शित किया किंतु उनके गुप्तचर रूप के कार्यों को कोई नहीं समझ पाया। तुलसी की दूरदृष्टि ने उनके गुप्तचर होने के कितने आन्तरिक रूप को अपनी लेखनी में दूसरों से कहलाया। ‘सीता लंका में है’ सम्पाती से यह सुनकर गुप्तचर वानर समूह अति हर्षित हो किलकारियां मारने लगे। उसी समय विशाल समुद्र लांघने की गंभीर समस्या का समाधान मिला। तुलसी के शब्दों में-
कहई रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
कवन सो काज कठिन जन माहीं। जो नहिं होड़ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तब अवतारा-सुनते ही त्रेता के गुप्तचर महावीर हनुमान ‘भयउ पर्वताकारी’ क्योंकि जामवंत की वाणी ने उसे उनकी शक्ति, पौरुष तथा वेग का स्मरण करा दिया था। उनके पौरुषत्व के ज्ञान का आभास होते ही आवेश में आकर पूछा कि ‘मुझे लंका जाकर क्या करना चाहिए’ सचिव जामवंत ने समझाते हुए कहा कि लंका जाते ही जगजननी सीता के दर्शन कर, उनकी वास्तविक दशा का पूर्ण समाचार श्रीराम को देना है। तत्पश्चात स्वयं श्रीराम लंका जाकर रावण का अभिमान ध्वस्त कर सीता जी का उद्धार करेंगे। जामवंत ने आगे समझाते हुए कहा-‘अपने पर आक्रमण होने पर स्वयं को उससे आत्मरक्षा का अधिकार सभी को होता है।’
सर्वप्रथम शत्रु की समग्र जानकारी हेतु नीति निपुण दूत के रूप में हनुमान जी का चयन किया गया। एक गुप्तचर के रूप में शत्रु के दुर्ग का पूर्ण रहस्य, आतंकी रावण की सैन्य शक्ति का आकलन कर लेना, अपना कर्तव्य मानना चाहिए, क्योंकि भविष्य में इनकी रचना पर ही निर्भर होकर श्रीराम को लंका पर आक्रमण करना है। पवनसुत हनुमान ने शत्रु देश लंका जाने के मर्म को समझते हुए छलांग लगाई। लंका की सुरक्षा हेतु मार्ग में रावण द्वारा चौकियां स्थापित थीं। सर्वप्रथम महिला आतंकी दस्ते का नेतृत्व राहू की माता सिंहिका का वध करते हुए समुद्र पार कर त्रिकूट के सुबेल शिखर पहुंचे। वहां हनुमान जी ने विश्राम किया। वहीं पर एकांत के क्षणों मेंं महाबली हनुमान सोच रहे थे कि स्वर्णमयी भौतिकता से परिपूर्ण लंका में केवल शक्ति से ही कार्य सम्पन्न न होगा- प्रतिभा, बुद्धि, कौशल का प्रयोग भी आवश्यक होगा।
आतंकियों के सिरमौर रावण की स्वदेश सुरक्षा में उसकी दूरदर्शिता को मानना पड़ेगा। उसने सुबेल पर्वत के शिखर पर रुद्र-मंत्र से अभिमंत्रित श्रृंखला से बांधकर यमराज को बैठा रखा था। मृत्यु के देवता यमराज को रावण ने आदेशित किया था कि शिखर पर पहुंचने वाले को मार दें। इसी शिखर पर मृत्युंजय हनुमान का सामना जब यमराज से हुआ तब रावण की पूर्ण कहानी ज्ञात हुई। मारुति नंदन बजरंगबली द्वारा यमराज को मुक्ति किये जाने पर मृत्यु के देवता यम ने आशीर्वाद दिया। इन आतंकवादी निशाचर संग्राम में आप जिधर दृष्टि उठाएंगे, विरोधी की आयु समाप्त कर दूंगा। मृत्युदेव की मुक्ति से लंका की सुरक्षा पंक्ति महान बुद्धिशाली गुप्तचर हनुमान ने इस सुबेल पर्वत के आतंकी शिविर को विध्वंस कर दी। इसके पश्चात अपनी सेना के शिविर स्थापित करने की योजना को पूर्ण करने की दृष्टि से हनुमान ने सुबेल पर्वत का भली भांति निरीक्षण किया-
‘शैल विशाल देवि एक आगें। ता पर घाइ चढ़ेउ भय त्यागें।।
तहां जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग वृंद देखि मन भाए।’
सुबेल पर्वत विस्तृत होने के साथ ही एक भाग समतल था, पर्याप्त शिलाएं थीं, फलदार हरेभरे वृक्षों के अलावा शीतल जलधारा को झरनों से परिपूर्ण प्राकृतिक छटा बिखेरे था-सैन्य दृष्टि से सुरक्षित श्रीराम के शिविर स्थापना हेतु उपयुक्त रहेगा। इसके बाद लंका के सुरक्षा प्रबंधों के सूक्ष्म निरीक्षण करने का जिसे तुलसी लिखते हैं-
‘कनक कोटि विचित्र मनि कृत सुंदरायता घना।
चउहट्ट हट्ट सुबह वीर्थी, चारु पुर बहु विधि बना।।’
गुप्तचर दृष्टि से हनुमान जी ने देखा दुर्गम उच्च परिधि से घिरे नगर के चारों ओर चार द्वार थे जिनमें वैज्ञानिक यंत्रों के साथ मजबूत बड़े द्वार थे, जो प्रहरियों से रक्षित थे। नगर में बड़े उद्यान, राक्षसों के भवन, सुंदर राजपथ वहां के शासन के प्रतिबिम्ब थे। नगर की सुरक्षा व्यवस्था को देखते हुए लंका में प्रवेश दुष्कर कार्य था। अत: रात्रि होते ही गुप्तचर रूप हनुमान ने सूक्ष्म रूप बनाकर शत्रु देश लंका में प्रवेश किया-
‘मसक समान रूप कपिधरी’ लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।
आतंकवादी रावण की सुरक्षा व्यवस्था इतनी सुदृढ़ थी कि रात्रि प्रवेश में हनुमानजी को महिला दस्ते की लंकिनी नामक राक्षसी के रोकने पर घूंसे का कड़ा प्रहार होते ही उसे खून की उल्टी होने लगी। लंकिनी ने ब्रह्मा के वचन याद कर वादा किया जब तक श्रीराम लंका पर अधिकार नहीं कर लेते। मैं एक तटस्थ मूक दर्शिका बनी रहूंगी। एक और सफलता गुप्तचर रूप में हनुमानजी को मिली जो नगर प्रवेश में कोई बाधा नहीं रही। इसके बाद भयातुर लंकिनी कहती है-
‘प्रविसि नगर कीजै सब काजा। हृदय राखि कौशलपुर राजा।
और अति लघु रुप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।’
सैन्य दृष्टि से गुप्तचरी के नियमानुसार अब चिंता थी शत्रु देश लंका में कोई एक विश्वास पात्र सहायक को ढूंढकर निकालने की।
‘मंदिर मंदिर प्रति घर सोधा,देखे जहं तंह अगनित जोधा’
‘भवन एक पुनि दीखि सुहावा। हरि मंदिर तहं भिन्न बनावा।।’
हनुमान जी ने इस पर विचार करते हुए निर्णय किया कि-
‘लंका निसिचर निकर निवासा इहां कहां सज्जन कर बासा।
मन महुं तरक करें कपि लागा, तेहि समय विभीषनु जागा।
राम राम तेहि सुमिरन कीन्हा, हृदय हरषि कपि सज्जन चीन्हा।
एहि सन हठि करिहउं पहिचानी, साधु ते होई न कारज हानी।।
यहीं से राम कथा में एक बड़ा परिवर्तन आया जो आज एक लोकोक्ति रूप में प्रचलित है- घर का भेदी लंका ढावै। हनुमान जी ने ब्राह्मण का रूप धारण कर ‘श्रीराम’ के नाम पर रावण के भ्राता विभीषण से भेंट कर उसे सदैव के लिए अपना बना लिया। गुप्तचर नियमों के अनुसार शत्रु के घर भेद डालकर उसके पारिवारिक व्यक्ति को अपना कर उसकी सुरक्षा में बड़ी सेंध लगाकर महान सफलता प्राप्त कर हनुमान जी ने अपने गुप्तचर होने की प्रामाणिकता सिद्ध की। सर्वप्रथम विभीषण से ज्ञात हुआ कि अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे सीता मां को रखा है। रावण को श्राप है कि किसी नारी की इच्छा के विरुद्ध बलात्कार का प्रयत्न करते ही उसकी अकाल मृत्यु हो जाएगी। तुलसी कहते हैं-
‘पुनि सब कथा विभीषण कहीं। जेहि विधि जनकसुता। तंह रहीं।।
तब हनुमत कहा सुनु भ्राता। देखि चहउँ जानकी माता।
जुगुति विभीषण सकल सुनाई। चलेउ पवन सुत विदा कराई।’
विदा होते समय हनुमान जी ने भ्राता विभीषण को आश्वस्त करते हुए कहा कि ‘श्रीराम महान परम पुरुष हैं।’ उनके शरणागत होने पर वे अपना लेते हैं।’ उसकी परिणिति हुई तब विभीषण ने रावण को त्याग श्रीराम के शरण में पहुंच कर विनम्र निवेदन किया-
‘श्रवण सुजसु सुनि आयऊँ प्रभु भंजन भव भीर। त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुवीरा।
लंका में श्री राम का यश मारुति नंदन ने सुनाकर आतंकी भ्राता रावण से विभीषण के अलग किया। तत्पश्चात श्रीराम के प्रति शरणागत होते हुए विभीषण बोले-
‘अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देख राम पद कमल तुम्हारे।।
तुम कृपाल पर अनुकूला। ताहि न व्याप त्रिविधि भव सूला।।
हनुमान की इस भावना को समझते हुए श्रीराम ने सदैव के लिए विभीषण को ‘लंकेश’ कहकर अपना बना लिया-
जदपि सखा तब इच्छा नाहीं। मोर अरस अमोध जग माही।।
असि कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
विभीषण द्वारा बताई गई युक्ति के द्वारा श्रीराम के इक्कीस बाणों ने परलोक पहुंचा दिया लंकेश्वर रावण को।
अशोक वन में सीता मां की चरण वंदना करके उस दुष्कर कार्य को पूर्ण करके श्रीराम की पहचान हेतु उनको नामाक्षरों की मुद्रिका भेंट किया-
‘तब देखि मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर।।’
लोकरंजन श्रीराम का संदेश देते हुए महाबली हनुमान जी ने सीता जी को आश्वस्त किया-
‘कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिह सहित अइहहिं रघुवीरा।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहूँ पुर नारदादि जस गइहहिं।।’
सीता जी ने अति प्रसन्न होकर कहा-
‘आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिध होहू करहुं बहुत रघुनायक छोहूं।।’
जामवंत के एक आदेश का पालन हो चुका था सीता जी का सही पता मिल गया था। परंतु दूसरा महत्वपूर्ण सुरक्षा विषयक कार्य शेष था- जो गुप्तचर को शत्रु की शक्ति तथा सैन्य बल का अनुमान लगाना और संभव हो तो शत्रुदल को आतंकित करना। उस उपाय को हनुमान जैसे बुद्धिमान गुप्तचर ने सरलता से खोज लिया, सीता मां से फल खाने की आज्ञा मांगकर। सर्वप्रथम फल खाये, वृक्ष को वाटिका में तोडक़र तहस-नहस किया, राक्षसों को मारा, आतंकी रावण पुत्र अक्षय को मारा। तत्पश्चात मुख्य अभीष्ट पूर्ण तब हुआ जब मेघनाथ हनुमान को नागपाश मेंं बांधकर रावण की सभा की ओर ले चला।
बुद्धिमान गुप्तचर रूप में हनुमान मार्ग में चलते समय सैन्य दृष्टि से शस्त्रागारों, सैन्य शिविरों, भण्डारगृहों तथा विशिष्ट भवनों का सूक्ष्म तरीके से निरीक्षण करते रहे। रावण की राज्यसभा मेंं पहुंचकर सभी सैन्य अधिकारियों को भली भांति पहचानते रहे। तत्पश्चात शत्रु का मनोबल गिराने हेतु हनुमान जी ने भरी सभा में श्रीराम के शौर्य का गुणगान करते हुए हतोत्साहित किया। रावण ने क्रोधित होते हुए कहता है-
‘बेगि न हरउ मूढ़ कर प्राना’
उसी समय ‘सचिवन्ह सहित विभीषण आये’ और उन्होंने सर्वप्रथम अपनी मित्रता का प्रमाण देते हुए कहा-
‘नाइ सीस कर विनय बहूता। नीति विरोध न मारिउ दूता।।
आन दंड कछु करिऊ गोसाई। सबहि कहा मंत्र भल भाई।।’
रावण ने विभीषण को क्षणिक संतुष्ट करते हुए आदेश दिया-
‘कपि के ममता पूंछकर सबहि कहउ समुझाइ। तेलि बोरि पट बांधि पुनि, पावक देहु लगाइ।।’
इस आदेश से हनुमान जी को नगर को पूर्णरूपेण देखने का अवसर मिल गया। इसी आदेश ने प्रमुख स्थानों को विध्वंस कर जनसामान्य को आतंकित करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया। ज्यों ही रावण के सैनिकों ने हनुमान जी की पूंछ में आग लगाई कि उन्होंने अपना तांडव प्रारंभ किया। सैन्य शिविरों को, दुर्ग पर लगे वैज्ञानिक यंत्रों को, शस्त्रागारों एवं वस्तु के भंडार गृहों तथा रावण की विशाल अट्टालिकाओं को धधकती आग की ज्वाला में भस्म कर दिया-‘उलटि पलटि सब लंका जारी’। पंूछ की आग सागर में बुझाकर सीता मां से आशीर्वाद स्वरूप चूड़ामणि की चिन्हारी प्रमाण रूप में लेकर ‘’नाधि सिंधु एहि पारहि आवा, सवद किलकिला कपिन्ह सुनावा।’ वानर गुप्तचर दलों में इस सफलता से प्रसन्नता की सीमा नहीं रही और श्रीराम के नाम पूछने पर पवनसुत हनुमान ने त्रिकूट के मध्य बसी लंका उसकी सुरक्षा व्यवस्था, रावण के परिवार तथा उनकी सैन्य शक्ति आदि की सम्पूर्ण जानकारी दी। इसके पश्चात अंत में विनम्रता पूर्वक कहा-‘आपके प्रताप से लंका के द्वार ध्वस्त हो चुके थे, खाइयां पट गई हैं, लंका अग्नि से भस्म हो चुकी है, कुछ सैन्य बल भी नष्ट हुआ है, मार्ग की सुरक्षा पंक्तियां ध्वस्त हो चुकी हैं, रावण व उसके पारिवारिक जनों को भय व्याप्त हो गया है, नागरिकों का ही नहीं, सैनिकों का भी मनोबल नष्ट हो चुका है। वहां सुबेल शिखर पर हमारे सैन्य शिविर स्थापना हेतु प्रशस्त स्थल हैं। वहां प्रचुर पुष्प फल में कंद भी उपलब्ध हंै और पीने के लिए प्रचुर मात्रा में जल के झरने हैं।’
‘अंजनी नंदन! तुमने यह तो अति दुष्कर कार्य करके पूरे रघुवंश को बचा लिया है।’ श्रीराम के इस कथन के कहते ही त्रेता युग का सबसे बड़ा गुप्तचर कातर होकर श्री चरणों में गिर पड़ा। एक गुप्तचर महान शक्तिशाली आतंकी रावण के राज्य में घुसकर कितना बड़ा कार्य कर सकता है। दोनों युग में जैसे हनुमानजी ही राम-रावण युद्ध के प्रधान सूत्रधार थे, वहीं महाभारत युद्ध में श्रीकृष्णाज्ञा से अर्जुन की घ्वजा पर आरुढ़ होकर निरीक्षण करना श्रीराम कृष्ण ऐक्य की प्रामाणिकता का प्रबल प्रस्तुतिकरण हैं पवनसुत।
सीता अपहरण तथा लंका युद्ध के घटनाक्रम के आधार पर विश्व कवि तुलसी श्रीराम से हनुमान के प्रति कहलाते हैं-
‘सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नाहिं कोउ सुर, नर, मुनि, तनुधारी।
प्रति उपकार करों का तोरा। सनमुख होई सकत मन मोरा।।
सुन सुत तोहि उरिन मैं नाही। देखेऊं करि विचार मन माही।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरवाता। लोचन नीर पुलक अति गाता।।
सुनि प्रभु वचन विलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।’ (विफी)
2024-04-24