– दिनेश चंद्र वर्मा
वैदिक युग से आज तक हर मांगलिक एवं शुभ कार्य में प्रथम वंदनीय माने जाने वाले भगवान गणेश सही अर्थो में लोक देवता है। वनवासी आदिवासियों से लेकर महानगरों तक में उनकी श्रद्घा, भक्ति, आस्था एवं अटूट विश्वास के साथ पूजा-अर्चना एवं वंदना की जाती है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक उनकी आराधना होती है। वैसे भी उन्हें सर्वमान्य देवता कहा गया है। शैव सम्प्रदाय उन्हें शिव पार्वती का पुत्र मानकर पूजते हैं तो वैष्णव उनकी पूजन इसलिए करते है कि महाभारत को लिपिबद्घ भगवान गणेश ने किया था। आर्यो ने उनकी स्तुति अपने वेदों में की तो द्रविड-संस्कृति में भी गणेश पूज्यनीय रहे। यहां तक कि आदिवासियों तक में उनकी पूजा का प्रचलन है। ”जा की रही भावना जैसी’ के अनुसार गणेश के स्वरूप भी भिन्न-भिन्न रहे हैं। यदि प्राचीन प्रतिमाओं को देखा जाय तो कहीं दिगम्बर गणेश की प्रतिमाएं देखने को मिलती हैं तो कहीं उनकी आभूषणों से सज्जित प्रतिमाएं भी मिली हैं। कहीं उनकी सूंड सामने की ओर है तो कहीं दायी और कहीं बांयी ओर। उनकी नृत्यरत प्रतिमाएं मिलती है तो वीर स्वरूप में भी प्रतिमाएं मिली हैं। कहीं उनकी शांत मुद्रा है तो कहीं वरदानी मुद्रा।
वे भाषाओं की सीमाओं से भी नहीं बंध पाये हैं। वेदों और पुराणों में उनकी संस्कृत में वंदना है तो हिन्दी के भक्त कवियों ने भी उनकी वंदना की है। गोस्वामी तुलसीदास की अनेक रचनायें, जिनमें राम चरितमानस भी है, गणेशजी की वंदना से ही शुरू हुई है। भारत की हर भाषा एवं बोली में गणेश का महिमागान हुआ है। आदिवासियों के लोकगीतों में भी गणेश का स्तुतिगान है। भारतीय महिलाओं के लोकगीत विशेषकर शादी-विवाह, नामकरण एवं मुंंडन के अवसर पर गाए जाने वाले गीत भी गणेश जी की स्तुति से भरे पड़े हैं। भारतीय धर्मग्रन्थों में गणेश को ओंकार आकृति का माना गया है। अर्थात वे जनक, पालक एवं संहारक तीनों है। धर्म ग्रन्थ उन्हें रक्षक भी कहते हैं। उन्हें प्रत्यक्ष ब्रह्मï मानते हुए वाड्मय, चिन्मय, सच्चिदानंद कहा गया है। उनकी वंदना में कहा गया है कि वे सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हैं। वे जागृत, स्वप्न एवं सुषप्त अवस्था से तथा स्थूल, सूक्ष्म एवं वर्तमान (तीनों देहों) से भी परे हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे रहने वाले गणेश जी को मूलाधार चक्र में स्थित कहा गया है। गणेश जी की वंदना में हमारे धर्मग्रन्थ कहते हैं कि वे इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीनों प्रकार की शक्ति है। वे ब्रह्मïा है, वे विष्णु है, वे रूद्र हैं, वे इन्द्र हैं, वे अग्नि हैं, वे वायु हैं, वे सूर्य हैं और वे ही चन्द्र हैं।
धर्मग्रन्थों में उनका स्वरूप एकदन्त, वक्रतुण्ड (टेढ़ी सूंड) वाला बताया गया है पर वे चतुर्भुज स्वरूप में वर्णिक किए गए हैं। उनके एक हाथ में पाश, दूसरे में अंकुश है तीसरा हाथ अभय एवं वरदान की मुद्रा में है जबकि उनके चौथे हाथ में ध्वजा है। उनका वर्णरक्त है, वे रक्तवर्ण के वस्त्र तथा बड़े कानों वाले बताए गए हैं। टेढ़ी सूंड और बड़े कान उनके महाज्ञानी होने का प्रतीक है। यह इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान तभी आता है जब सुनने के लिए कान बड़े हों तथा मौन धारण किया जाय।
गणेश को जहां ज्ञान एवं बुद्घि का देवता कहा गया है वहीं रक्तवर्ण के प्रति उनका अनुराग उनके योद्घा होने का प्रतीक है। उन्हें सुख, समृद्घि एवं सम्पन्नता दायक तथा ऋण हर्ता भी कहा गया है। इसलिए धनदाता लक्ष्मी के साथ उनकी भी पूजा होती है। वे पांचों प्रकार के पातकों (पापों) से मुक्ति देने वाले कहे गए हैं। इसलिए कहा गया है कि जो प्रात: एवं सांय दोनों समय गणपति का स्मरण करता है, वह निष्पाप हो जाता है।
गणपति के भोजन के बिना उनकी चर्चा अधूरी है। भारतीय धर्मग्रन्थों के अनुसार मोदक या लड्डू उनका प्रिय भोजन माना जाता है पर उन्हें दूबा (दूर्बा या हरी घास) भी चढ़ाई जाती है। आदिवासी उन्हें गन्ना या कबीट (एक प्रकार का खट्टा-मीठा जंगली फल) भी चढ़ाते हैं। इस तरह नगरों, कस्बों एवं गांवों में जहां उन्हें विभिन्न प्रकार के लड्डूओं का भोग लगाया जाता है वहीं वनवासी दूबा, गन्ना या कबीट चढ़ाकर भक्ति भाव प्रदर्शित करते हैं।
वास्तविकता में यहीं पर गणेश का लोक देवता का स्वरूप प्रकट होता है। वे समृद्घों के सुस्वादु मोदकों से भी उतने ही प्रसन्न होते है, जितने कि आदिवासियों, वनवासियों और ग्राम जनों के दूबा, गन्ना और कबीट से। (विफी)