-. हरिप्रसाद दुबे
बसंत पंचमी के दिन जहां सरस्वती के जन्म लेने की प्राचीन आस्था है। वहीं अन्य पक्ष भी ऋतुराज की ख्याति में प्रमुख है। योग वाशिष्ठï के मण्डपोपाख्यान में राजा पदम की पत्नी लीला ने सरस्वती की पूजा अर्चना की और भगवती शारदा ने प्रसन्नता में उसे भविष्य का ज्ञान करा दिया था। एक बार जब उसके पति का शरीर अचानक शांत हो गया तो उसके स्मरण करते ही वे पुन: पहुंच गयीं और उसके शरीर को एक मण्डप में कमल पुष्पों से ढककर रखने के लिए बताया। इसके बाद लीला की आराधना से पुन: आकाश गमनादि की शक्ति दी। विपुल लोकों का दर्शन कराने के बाद पुन: उसके पति को जीवित कर दिया। दोनों को ब्रह्मï विद्या का उपदेश दे दिव्यज्ञान से युक्त करके मोक्ष प्रदान किया। सरस्वती की वंदना संस्कृत साहित्य में इस प्रकार की गयी है-
”वाणीं पूर्ण निशाकरोज्ज्वल मुखीं कर्पूर कुन्द प्रभां
चंद्रार्धाअंकित मस्तकां निज करै: सम्बिभ्रतीमादरात्।
वीणामक्ष गुणं सुधाढ्य कलशं विद्यां च तुङगस्तनीं
दिव्यै राभरणै र्विभूषिततनुं हंसाधिरूढ़ा भजे॥
अर्थात् जिनका मुख पूर्णिमा के चंद्र तुल्य गौर है, जिनकी अंग कान्ति कपूर और कुन्द फूल के समान है, जिनका मस्तक अर्धचंद्र से अलंकृत है, जो अपने हाथों में वीणा, अक्षसूत्र अमृतपूर्ण कलश और पुस्तक धारण करती है एवं ऊंचे स्तनों वाली है, जिनका शरीर दिव्य आभूषणों से विभूषित है और जो हंस पर आरूढ़ है, उन सरस्वती देवी का मैं आदर पूर्वक ध्यान करता हंू। सरस्वती अज्ञान का हरण करती है।
वेदों में सरस्वती नदी को वाग्देवता का रूप माना गया है। अन्य नदियों की तुलना में सरस्वती नदी के अधिक ही मंत्र मिलते है। इसलिए सरस्वती के प्रति ऋषियों के हृदय में श्रद्घा हुई और सरस्वती ने विशेष कृपा की। पौराणिक आख्यानों में लगभग तीस स्थानों पर सरस्वती के नदी रूप में प्रवाहित होने के प्रमाण हैं। पुष्कर में जब ब्रह्मïा ने यज्ञ किया तो ऋषियों की प्रार्थना पर ब्रह्मïपत्नी सरस्वती नदी के रूप में वहां प्रकट हुई। असीम प्रभायुक्त शरीर के कारण उनका नाम उस समय ”सुप्रभाÓÓ था। नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों के द्वादशवर्षीय सत्र में उनके ध्यान करने पर काञ्चनाक्षी रूप में प्रकट हुई। गया नगरी में जब महाराज गय अनुष्ठान कर रहे थे। वहां उनके ध्यान करने पर सरस्वती नदी के रूप में प्रकट हुईं।
तीर्थराज प्रयाग की सरस्वती की ख्याति असीम है। इसी तरह मनोरमा, सुरेणु ओधवती और विमलोदका नामों से सरस्वती उत्तर कौशल, कुरूक्षेत्र, पुण्यमय, हिमालय पर्वत आदि स्थलों पर प्राणियों को पावन करने के लिए नदी रूप में प्रवाहित हुई। वे पवित्र जल से बाह्य शुद्घि और ज्ञानशक्ति के रूप में अंत:करण को प्रक्षालित कर आराधक को विद्या प्रदान करती है।
सरस्वती के जन्मोत्सव के अतिरिक्त बसंत पंचमी के अन्य पक्ष भी है। बसंत आत्मीयता का मंत्र फंूकता है। बसंत मानव को मानव से जोडऩे के लिए उतरता है।
बसंत अपनापन लुटाने आता है। इसका परिचय आम के बौर से या कोयल की बोली से नहीं होता। चित्त में ऐसी उत्कंठा के जागृत होने से होता है जिनका कोई आलंबन नहीं जिसकी कोई स्मृति नहीं। मधुऋतु का संदेश वाहक और मनहर पुष्प पतझड़ में धरा को समस्त पत्ते समर्पित कर अभिनव किसलय का बिना ध्यान दिए बसंत के आने के पहले ही कचनार खिलखिला कर हंसता है। कचनार ऋतुराज का सहचर और अग्रसर है। यह मनोहारी फूल चित्त गदगद करने के साथ-साथ अन्य फूलों को भी खिलने की प्रेरणा देता है। बसंत से हृदय कमल खिल जाता है। कचनार अलौकिक सौंदर्य से अनिर्वचनीय अनुभूति देने में समर्थ होने के कारण ही बसंत का अग्रदूत कहा गया है। प्रकृति देवी का अलंकार है यह तो बसंत का श्रृंगार, काव्य और कवि की प्रेरणा, उल्लास की झनकार अलि का गुंजार है कचनार। ऋतुराज बसंत में कचनार सर्वप्रथम खिल कर सबको खिलने को उकसाता है। इसे संस्कृत में काञ्चाल और काञ्चनार नाम दिया गया है। पातंजल महाभाष्य में स्वर्गिक वृक्ष नाम से वर्णित है। बिहार के वनवासी लोकभाषा में कोइलार या कोइनार नाम से इसी शंकर प्रिय पुष्प की प्रशस्ति है। प्रत्येक कचनार फूल के मध्य पांच लंबे पुष्प केसर होते हैं।
वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि पंपा सरोवर के तीर पर अवस्थित पर्वत शिखरों पर बसंत ऋतु में कचनार के फूल खिल रहे थे। सहयाद्रि पर्वत पर फूले कचनार के पादप वानरों से समाकुल हो गये थे। हनुमान ने लंका में पुष्पित कचनार वृक्षों को देखा था। कचनार का यह पुष्प भारतीय नरेशों को सर्वाधिक प्रिय था। कालिदास ने इन कचनार फूलों की तुलना टेढ़ी चितवन से करते हुए लिखा है कि इसके प्रहार से प्रेमियों के हृदय पर गहरी चोट लगती है। ऋतुसंहार में वर्णित है कि कोविदार वृक्ष सभी के हृदय टुकड़े-टुकड़े करके छोड़ता है। कचनार बसंत का सेनापति है। यह अनंग का सखा है। प्र्रेमियों का उद्दीपन तथा कवियों का आलंबन है। लोक संस्कृति में कचनार वर्णित है-
जानि परसहु कचनार लोभी माली चेत धरू
मिटिहे सकल बहार लदी सिखर तौ मूल लौ
धर राखहु उपदेश पथिक अनारी रस सहित
रितु बसंत इहि देस फूल चुकी कचनार सब
समय के प्रवाह में बसंत का रूप परिवर्तन होता रहा है। इधर मानव मन की विद्रुपता से वह अपने पर तरस खाता है। वह गहन चिन्तन में डूबता रहा है। बसंत को ऋतुराज कहा जाता है। कभी तो इसमें अम्बर सरसता था, सौन्दर्य फांसता था और प्रणय फंसता था। दिगदिगंत में बसंत पसर कर सरसों पर का रंग बरसाता था। किसी को जलाता तो किसी के चित्त को हुलसाता। किलकारियों का गुंजन बहारों का मचलना सर्वत्र भाव बंधन प्रणय, प्रीति-राग और प्यार ही प्यार होता है बसंत। यह सुकुमार बसंत बड़ा विचित्र होता था।
”को वचिहै यह वैरी बसंत पै, आवत ही बनि आग लगावत,
बौरत ही करि डारत बौरी,
भरे विष वैरी रसाल कहावत,
होत करेजन की किरचैं,
कवि देव जु को किल बैन सुनावत,
वीर की सौं,
बलवीर बिना उड़ जायेंगे प्रान अबीर उड़ावत।
कोई बसंत को मीत मानता था, कोई सजता संवरता था, कोई संगीत छेड़ता था। इस समय कोकिल भी दुखी है। उसके साम्राज्य में उदासी है-दिग दिगन्तों में बसंती आवरण प्रसरित हुआ धू लिया चैतन्य ने प्रत्येक कण। दिग दिगन्तों में बसंती वायुु का परिधान फैला। बसंत उत्सव-उत्साह का प्रतीक है। जीवन को प्रतिपल उत्साह से जीना ही बसंत है। ऋतुराज मानव मन में आवरण करने के लिए बार-बार चिन्तन करता है। वह मानव मन के घृणा शैवाल, स्वार्थ के क्रीड़ा क्षेत्र को जानता है। द्वेष का लावा, छद्म के बर्तन पकाने का आवा, मानव मन प्रपंच की शतरंज का पट पूर्ण बहुरूपिया, दिखावा मात्र दिखावा। बसंत खूब जानता है मानव मन के स्वयं के हाथों तोड़ा गया दर्पण, चकनाचूर कण कण। मानव मन का प्यार है केवल भूख, वासना, विलास, चमकीले लिबास में। ऋतुपति जानता है मनुष्य का पहले फूलों से मेल था तब जीवन तरंगों का खेल था। अब आत्महंता मानव संत्रास उगलता है। बाग-वन, उपवन, यमुना तट पर कृष्ण का मधुवन भी त्रस्त है। अब कहां अपनी कोमल सेना के साथ बसंत अवतरण करे।
अजेय प्रकृति का सखा बसंत संवारना भी जानता है। छवि छिटका कर फूलों में मधुकण-पराग वारेगा। प्रियंगु कालीयक, कुंकुम-चंदन छिड़ककर अग-जग में जीवन का सौरभ फैलायेगा।
ऋतुपति होने के कारण काल सिंहासन पर शीश पर पुष्प मुकुट पहनकर गदगद होगा। आदिसृष्टïा ने रचना संसार में सर्वत्र बसंत का अवतरण कराया है। (विभूति फीचर्स)