-राजेंद्र सिंह गहलोत
वर्तमान में भले ही किन्हीं कारणों से कुछ मुस्लिमों को होली खेलने और रंग से परहेज हो पर सदा से ऐसा न था। लगभग सभी मुगल शासकों के दरबारों में होली का जश्न मनाया जाता था। मिर्जा कतील ने 1800 ई.के आसपास लिखी अपनी फारसी कृति ‘हफ्ता तमाशा’ में लिखा है कि ‘अफगानों और कुछ विद्वेष रखने वाले लोगों के अलावा सब मुसलमान होली खेलते थे। कोई छोटा से छोटा व्यक्ति बड़े से बड़े संभ्रांत आदमी पर रंग डालता था तो उसका वह बुरा नहीं मानता था।’ अवध के नबाबों के दरबारों में भी होली का उत्सव मनाया जाता थ। अमीर उमराव भी होली मनाया करते थे। उर्दू भाषा का जन्म ही हिंदू-मुस्लिम के बीच सामाजिक मेल मिलाप हेतु हुआ अत: साम्प्रदायिक सद्भाव उसके चित्त में निहित था। लंबे समय से एक साथ रहते हुए हिंदू और मुसलमानों के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक स्तर पर काफी आदान-प्रदान हुआ है।
रंग और उल्लास के त्यौहार होली ने हिंदू कवियों को ही नहीं उर्दू शायरों को भी लुभाया और उन्होंने अपनी नज्म, शेर, गजल में होली के रंग-बिरंगे चित्र प्रस्तुत किये हैं। होली के त्यौहार का वर्णन उन्होंने सिर्फ हिंदुओं के त्यौहार के रूप में नहीं किया बल्कि इस त्यौहार के रंगों में सराबोर होकर होली खेलते हुए अपनी रचनाओं में किया है। उनकी रचनाओं में होली के चित्र लोकजगत में बिना हिंदू मुस्लिम के भेदभाव के इस भांति प्रस्तुत हुए हैं कि वे इस बात के प्रमाण बन गये हैं कि उनके युग में होली का त्यौहार हिंदू मुस्लिम परस्पर मिलकर उल्लास से मनाते थे। अकबर के नवरत्न में से सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ मियां तानसेन होली के पर्व पर जनसामान्य के साथ होली समारोहों में सम्मिलित होते और होली के पद गाते थे-
‘लंगर बंटवार खेले होरी।
बाट घाट कोउ निकसि न पावै पिचकारिन रंग बोरी।
मै जु गई जमुना जल भरन, गहि तुम भीजी रोरी।
तानसेन प्रभु नंद को ढोरा बरज्योंन मानत मोरी।‘
रसखान ने राधा कृष्ण की होली का सरस चित्रण अपने पदों में किया-
‘मोहन हो ही होरी।
काल्ह हमारे आंगन गारो दै आयो सो कौ है री।
अब क्यों बैठे जसोदा ढिग निकसो कुंजबिहारी।‘
शाह आलम सानी अपनी शायरी में होली की होरिहारिन का सरस वर्णन करते हुए लिखते हैं-
‘रंग भरी पिचकारी लिये अब आंगन में सखि आइ खरी है।
चतुर नार खिलार बड़ो अति रूप तिया गुन की अगरि है।
गावत फाग सुहाग भरी अरु अंगन में सब रंग भरी है।
वरु हाथ सुगंध गुलाल लिये कहां फूलन बौछार करी है।‘
अली गौहर ने भी होली की होरिहारिन का अलग ही अंदाज में सरस चित्रण प्रस्तुत किया है-
‘अबीर गुलाल से झोरी भरी, अरु रंग भरी पिचकारी लई है।
खेलत होरी कौ नेह बढ़ौ, चतुराई सूं खेल खिलार नई है।
प्रीतम ने जब बांह गही, उनसे तो कही हा हा दई है।
आवत आइके चोर चलाय, भिजाय के लाल को भाग गई है।’
फायज देहलवी अठारवीं सदी के आरंभ के एक मशहूर शायर थे वे औरंगजेब के अंतिम दौर से मुहम्मद शाह के युग (1719-1748 ई.) तक जीवित रहे। उनकी रचना ‘तारीफे होली’ में दिल्ली में होली खेलने का विशेष वर्णन मिलता है-
‘ले अबीर और अरगजा भर कर रुमाल
छिड़कते है और उड़ाते हैं गुलाल
ज्यू झड़ी हर सू है पिचकारी की धार
दौड़ती है नारियां बिजली की सार।‘
हातिम भी इसी दौर के एक बड़े शायर थे उनकी नज्में भी होली पर मिलती हैं। उन्होंने अपने शेरों में स्त्रियों और पुरुषों के आपस में होली खेलने के दृश्य का संजीव चित्रण किया है-
मुहैया सब है अब असबाबे होली
उठो यारो भरो रंगों से झोली
इधर यार उधर खूबां सफआरा
तमाशा है तमाश है तमाश
बीजापुर और गोलकुण्डा के जिन शायरों ने होली पर नज्में लिखी हैं उनमें कुली कुतुबशाह का नाम सर्वोपरि है। प्रस्तुत है उनकी नज्म के कुछ शेर-
बसंत खेले इश्क की आ पियारा
तुम्हीं मैं चांद में हूं जू सितारा
जोबन के हौजखाने में रंग मदन भर
सू रोमा रोम चर्किया लाए धारा
नबी सदके बसंत खेल्या कुतुबशाह
रंगीला हो रहिया तिरलोक सारा।
मीर (1772-1810 ई.) ने होली पर दो मस्नवियां और एक गजल लिखी है। होली शीर्षक की इस मस्नवी में आसफउल्ला के दरबार की होली का दृश्य चित्रित है-
होली खेला आसुफद्दौला वजीर
रंग सुहबत से अजब है खुर्दो पीर
मीर की दूसरी मस्नवी का शीर्षक है- ‘शाकीनामा होली’। इसमें मीर होली पर शराबनोशी का उन्मुक्त चित्रण करते हैं-
आओ साकी शराब नोश करें
शोर सा है जहां में गोश करें
आओ शाकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियां लाई
नजीर अकबरावादी (1735-1830 ई.) लोकजगत के लोक प्रिय शायर है। उन्होंने होली पर सबसे अधिक नज्में लिखीं। नजीर का मानना था कि होली सिर्फ हिंदुओं का त्यौहार नहीं बल्कि सांझा त्यौहार है। इसके आनंद उठाने में सब शामिल हैं-
नजीर होली का मौसम जो जग में आता है,
वह ऐसा कौन है होली नहीं मनाता है।
कोई तो रंग छिड़कता है कोई तो गाता है,
जो खाली रहता है वो देखने आता है।
नजीर अपनी होली की शायरी में होली के दृश्य चित्रित करते हुए होली के रंगों में सरोबोर होकर होली खेलते नजर आते हैं-
गुलजार खिले हो परियो के औ मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हो औ हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगियां पर तक कर मारो हो
बहादुर शाह जफर ने होली पर पारम्परिक रागों में फागे लिखी है। उनकी होली विषयक नज्म में ब्रज और बुंदेलखंड के गांवों में जब हास परिहास वाले किसी व्यक्ति पर स्त्रियां रंग डालती हैं तो उससे फगवा के रूप में बताशे लेती हैं इस प्रथा का चित्रण मिलता है-
क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी
देखो कुंवर जी दूंगी मैं गारी
भाग सकूं मैं कैसे मो सों भाग नहीं जात
ढाढ़ी अब देखूं और को सन्मुख आत
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने दूं
आज फगवा तोसो का पीठ पकड़ कर लूं।
ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ लखनऊ के मशहूर शायर थे। उनके जीवन में भी होली पर शेर मिलते है।
खाके शहीदे नाज से भी होली खेलिये,
रंग इसमे हैं गुलाब का बूं है अबीर की।
उर्दू शायरी में होली पर लिखी नज्में इस बात का प्रमाण हैं कि रंग और उल्लास का यह त्यौहार होली बिना किसी भेदभाव के हिंदू मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय के बीच मिलजुल कर उल्लास के साथ मनाया जाता था। आशा है कि इस होली पर भी यह रंगीला त्यौहार हर वर्ग, जाति, सम्प्रदाय के मध्य परस्पर मिलजुल कर पूरे उल्लास से एक दूसरे के गले मिलकर रंग अबीर गुलाल से एक दूसरे को रंगते हुए मनाया जाएगा। होली पर ढेर सारी शुभकामनाएं। (विभूति फीचर्स)