– सुभाष आनंद
भारत की आजादी की लड़ाई का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आजादी की लड़ाई में हजारों लोगों ने अपने प्राण न्यौछावर करके अपने कत्र्तव्यों की पूर्ति की। प्रत्येक स्वतंत्रता सेनानी का इतिहास प्रशसनीय है लेकिन इस लड़ाई में जब कोई नौजवान मौत की आंखों में आंखे डालकर लड़ता है और मौत को गले लगाने के लिए तत्पर रहता है तो वह इतिहास में सूर्य बन कर चमकता है। ऐसे तीन शहीद-भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव ने लाहौर की जेल में ‘इंकलाब-जिंदाबाद के नारे बुलंद करते हुए हंसते-हंसते फांसी के तख्ते को चूमा और इतिहास में सदा के लिए अमर हो गए। स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में भगत सिंह हीरो बनकर उभरे।
इन शहीदों की शहीदी के 13 वर्ष बाद भारत वर्ष आजाद हो गया। फांसी की कोठरी में से फांसी से पहले भगत सिंह ने 27 पन्नों का एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था कि मैं नास्तिक क्यों हूं।
23 वर्षीय भगत सिंह ने मौत की आंखों में आंखें डालकर इस लेख में राजनीतिक, सामाजिक और दूरदृष्टि की सोच में महात्मा गांधी, तिलक, गोखले, सुभाष चंद्र और अन्य बड़े नेताओं को पीछे छोड़ दिया। यह लेख पढ़कर आप मेरे तर्क से अवश्य सहमत होंगे कि शहीदे आजम भगतसिंह के माथे पर अपने अपने धर्म का ट्रेड मार्क थोपने की असफल कोशिश की गई। अकालियों ने वोटों के लिए शहीद भगत सिंह के सिर पर पगड़ी दिखा दी, लेकिन भाजपा उसे सच्चा हिंदू और आर्य समाजी प्रस्तुत करती रही और कांग्रेस उसे कांग्रेसी शहीद बताकर वोट बटोरती रही। लेकिन दु:खद बात है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी ने भगत सिंह के विचारों और लेखनी को अगली नौजवान पीढ़ी तक पहुंचाने का कोई सच्चा प्रयास नहीं किया। यदि भारतीय नेता चाहते तो भगत सिंह की लेखनी और उनकी विचारधारा को स्कूल एवं कॉलेजों की पढ़ाई का अंग बनाते। आजादी की लड़ाई में और इतिहास के पन्नों में पगड़ी वाले भगत सिंह का कहीं भी कोई जिक्र नहीं किया गया परंतु अकाली नेताओं ने अपने निजी हितों और वोटों की खातिर उसे सिख दिखाकर ‘सिख शहीद’ बनाने की कोशिश की थी जबकि भगत सिंह ने अपने इस लेख और पुस्तकों में बार-बार लिखा है कि वह न हिंदू हैं-न सिंख न ईसाई न मुसलमान वह तो भारत माता का ऐसा बेटा है जिसका धर्म मानवता की सेवा करना है। सभी भारतीय जानते हैं कि जिस भगत सिंह ने हेंट पहिनकर स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी उसे सभी भारतीय अभी भी प्यार करते हैं।
यह कटु सत्य है कि भगतसिंह का जन्म आर्य समाजी परिवार में हुआ था लेकिन 100 वर्ष पहले बाल रखना और पगड़ी बांधना भारतीय संस्कृति की पहचान थी। भगत सिंह ने लिखा है कि वे पिता की भांति केश रखते थे और पगड़ी बांधते थे और उनसे आजादी प्राप्ति की शिक्षा लेते थे। पिता जी परमात्मा में विश्वास रखते थे और मुझे परमात्मा की महिमा बताते, परमात्मा में विश्वास करने को कहते। बाद में शिक्षा प्राप्ति के लिए मुझे लाहौर जाना पड़ा। कॉलेज में मुझे कई नई पुस्तकें पढऩे का अवसर मिला। राम प्रसाद बिस्मिल और सचिन्द्र नाथ सान्याल से विचारों का आदान-प्रदान होता रहा। बाद में मैं तर्कों के आधार पर नास्तिक बन गया और परमात्मा को मानना छोड़ दिया। अंतिम दिनों में भगत सिंह लिखते हैं ‘कि लाहौर जेल की फांसी की कोठरी में मुझे एक जेल कर्मचारी ने कहा कि अब तुम्हारे जीवन का अंतिम समय आ गया है, अत: परमात्मा से प्रार्थना कर लो। मेरा उत्तर था वीर जी मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकता। प्रार्थना तो वे करते हैं जिनको अपनी मंजिल और लक्ष्य की सच्चाई की महानता होने का विश्वास नहीं होता। मेरा केवल एक मात्र लक्ष्य है भारत माता को आजाद कराना। मेरी मृत्यु इस लक्ष्य को बहुत निकट ले आएगी। मैं अपनी मौत से डरने वाला नहीं हूं-मैं अपनी जान बचाने वाला स्वार्थी नहीं हूं कि मैं परमात्मा से प्रार्थना करूं…।
यह कटु सत्य है कि भगत सिंह ने केश कटवाए थे लेकिन केश कब-क्यों और कैसे कटवाए थे शायद पाठकों को ज्यादा पता न होगा। इस घटना का जिक्र फिरोजपुर के एक बुजुर्ग जो स्वतंत्रता की लड़ाई से जुड़े थे, किया करते थे कि भगत सिंह ने राजस्थानी नाई गजांन्रद से अपने बाल (केश) कटवाए थे।
1926-27 में अंग्रेजी सरकार ने इंडियन नेशनल कांग्रेस की पूर्ण आजादी की मांग ठुकरा दी थी परंतु अंग्रेज प्रादेशिक सरकारों को कुछ अधिकार देने को तैयार थी जिसके लिए साईमन कमीशन लंदन से भारत भेजा गया। कमिश्नर के लाहौर आगमन पर 2 लाख लोगों ने इसका बहिष्कार किया और पूर्ण आजादी की मांग की। लाखों लोगों ने साईमन कमीशन गौ-बैक के नारे लगाए। लाहौर के अंग्रेज पुलिस मुखिया जे.ए.सकार्ट ने लोगों पर लाठी चार्ज किया जिसमें लाला लालपतराय बुरी तरह घायल हुए और 17 सितम्बर 1928 को स्वर्ग सिधार गए। इससे पहले 7/8 सितम्बर की रात्रि को क्रांतिकारियों ने फिरोजपुर कोटला में एक मीटिंग की जिसमें भगत सिंह यूपी से चंद्रशेखर आजाद, शिव वर्मा, जयदेव कपूर-बंगाल से फणीन्द्र नाथ घोष, विजय सिन्हा बिहार से कमल नाथ तिवारी और अन्य प्रदेशों के नौजवान एकत्रित हुए और फैसला लिया गया कि कांग्रेस की कमजोर नीतियों को त्याग कर उग्र रुप से आंदोलन शुरु किया जाए। मीटिंग में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का नाम बदल कर हिंदोस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रख दिया गया। चंद्रशेखर आजाद एक्शन इंचार्ज बनाए गए।
भगत सिंह को क्रांतिकारियों से सम्पर्क बनाए रखने के लिए कोआरडीनेटर बनाया गया। उनकी पहचान को छुपाने के लिए कहा गया। क्योंकि सीआईडी भगत सिंह को केश और पगड़ी वाले के रूप में जानती थी अत: पहचान छुपाने के लिए भगत सिंह के केश कटवाने का निर्णय लिया गया। भगत सिंह के साथी डाक्टर गया प्रसाद (जिन्हें लोग डा. निगम के नाम से जानते थे) फिरोजपुर छावनी में डाक्टर की दुकान किया करते थे 8 सितम्बर रात्रि की गाड़ी से सवार होकर भगत सिंह प्रात: पंजाब मेल से फिरोजपुर छावनी पहुंचे। उन दिनों फिरोजपुर शहर और छावनी क्रांतिकारियों की गतिविधियों का केंद्र हुआ करते थे। डाक्टर निगम की क्लीनिक में बारुद पेट्रोल इत्यादि दवाओं की आड़ में रखे जाते थे। अंग्रेज पुलिस को कोई संदेह नहीं होता था। फिरोजपुर छावनी में डाक्टर निगम ने कैंची से बाल काट दिए क्योंकि सार्वजनिक स्थान पर बाल काटने की सूचना पुलिस को मिल सकती थी बाद में नमक मण्डी के गजांनद नाई ने भगत सिह के बालों को संवारा और क्रांति की राह में सबसे बड़ी रुकावट दूर कर दी।
17 सितम्बर 1928 को लाला लाजपत राय की अर्थी को अग्नि भेंट करते उनकी बूढ़ी माता बसंती देवी ने भाषण दिया कि साईमन कमीशन के विरोध के समय 2 लाख लोग उपस्थित थे, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि अंग्रेजों की लाठी और लाला की मौत ने नौजवानों को कायर बना दिया है। मैं पूछती हूं कि इंकलाब-जिंदाबाद का नारा लगाने वाले नौजवान लाला की मौत को शीघ्र ही क्यों भूल गए हैं? बूढ़ी मां के शब्दों ने भगत सिंह को चोटिल कर दिया और उन्होंने उसी समय प्रण लिया कि शीघ्र ही बदला लिया जाएगा। हत्यारे जे.ए.स्कार्ट को सजा देने के लिए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को चुना गया। गोली निशाने पर न लगने के कारण सांडेर्स मारा गया। बूढ़ी मां बसंती देवी का आदेश पूरा हुआ और अंग्रेज सरकार हिल गई।
लाहौर छोडऩे की तैयारी में क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की धर्मपत्नी दुर्गा भाभी ने भगत सिंह को अपना पति बताया (जिसने कोट-पेंट और हेट पहना हुआ था) राजगुरु नौकर बन कर दुर्गा भाभी का छोटा बच्चा उठाए लाहौर से भाग गए। इसके बाद चार वर्ष की गतिविधियां में भगतसिंह की पहचान हेट वाली बन गई। हेट वाले भगत सिंह ने सोई जनता को जगाया और हसंते-हसंते फांसी के फंदे को चूम लिया। (विफी)