भारत में अब तक एग्जिट पोल का रिकॉर्ड खराब रहा है, क्योंकि वे अक्सर चुनाव के नतीजे गलत बताते हैं
– संजय सिन्हा
चिलचिलाती धूप और बेशुमार गर्मी के बीच आठ राज्यों की 57 सीटों पर 18 वीं लोकसभा के लिए चल रही 7 चरणों वाली लंबी मतदान की प्रक्रिया आखिरकार संपन्न हुई । इसके साथ ही एग्जिट पोल का दौर भी शुरू हो चुका है। एनडीटीवी न्यूज चैनल के एग्जिट पोल में कहा गया है कि आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाले गठबंधन को बहुमत मिलने का अनुमान है।ज्यादातर एग्जिट पोल में एनडीए के बहुमत की बात की जा रही है। दो एग्जिट पोल में अनुमान लगाया गया है कि सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) संसद के 543 सदस्यीय निचले सदन में 350 से अधिक सीटें जीत सकता है, जहां साधारण बहुमत के लिए 272 की आवश्यकता होती है। 2019 के चुनाव में एनडीए ने 353 सीटें जीती थीं।राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन को 120 से अधिक सीटें जीतने का अनुमान लगाया गया है।हालांकि ये भी माना जा रहा है कि भारत में अब तक एग्जिट पोल का रिकॉर्ड खराब रहा है, क्योंकि वे अक्सर चुनाव के नतीजे गलत बताते हैं। देखा जाए तो बड़े और विविधतापूर्ण देश में एग्जिट पोल को सही बताना भी एक चुनौती है। हालांकि, विपक्ष ने एग्जिट पोल को खारिज कर दिया है और उसके जारी होने से पहले “पूर्वनिर्धारित” कहा था। 19 अप्रैल से शुरू हुए सात चरणों के चुनाव में लगभग एक अरब लोग मतदान करने के पात्र थे और कई हिस्सों में भीषण गर्मी में चुनाव हुए।इसमें कोई शक नहीं कि सात चरणों में होने वाले इस मतदान के दौरान चुनाव आयोग को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।देखा जाए तो ये चुनाव ऐसे समय कराए गए, जब देश का ज्यादातर हिस्सा भीषण गर्मी की चपेट में रहा। इस तथ्य को जितनी अहमियत मिलनी चाहिए थी, उतनी न देते हुए आयोग ने छह सप्ताह की अप्रत्याशित रूप से लंबी मतदान प्रक्रिया निर्धारित कर दी। इसके पीछे मकसद निश्चित रूप से मतदान प्रक्रिया को यथासंभव शांतिपूर्ण, निष्पक्ष और विश्वसनीय बनाए रखना था, लेकिन इस वजह से नेताओं, कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में चुनावों को लेकर दिलचस्पी बनाए रखना मुश्किल होता गया। कम मतदान प्रतिशत के पीछे एक वजह यह भी मानी जा रही है।गर्मी से बेहाल बहुत सारे लोग मतदान के लिए बूथ तक नहीं पहुंचे।चूंकि ज्यादातर वोटरों को वोट देने के लिए बूथ तक जाना होता है और अनुभव बताता है कि यह हमेशा आसान नहीं होता, इसलिए इसका ध्यान रखने की जरूरत होती है कि जहां तक हो सके, वोटरों के घर से बूथ की दूरी ज्यादा न हो। लेकिन राजधानी दिल्ली की ही बात की जाए तो यहां की सातों संसदीय सीटों में बूथों की संख्या 2019 के मुकाबले कम रखी गई थी। वह भी तब, जबकि मतदाताओं की संख्या में 9 लाख का इजाफा हो चुका था। जाहिर है, ऐसे में खास तौर पर बुजुर्ग मतदाताओं के लिए वोट देने जाना थोड़ा और मुश्किल हुआ।भारत जैसे बड़े और विविधतापूर्ण देश में अगर चुनाव विश्वसनीय माने जाते रहे हैं तो इसका श्रेय चुनाव आयोग को ही जाता है। सहज और शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के पीछे सबसे बड़ा फैक्टर है इस प्रक्रिया पर मतदाताओं का विश्वास। इस विश्वास को मजबूती मिलती है आकंड़े समय पर जारी होते रहने से। ध्यान रखना चाहिए कि सूचनाओं का अभाव संदेह को जन्म देता है।देखा जाए तो चुनाव आयोग के लिए सबसे मुश्किल होता है विभिन्न पार्टियों के नेताओं से चुनावी आचार संहिता का पालन कराना। अक्सर पार्टियों का नेतृत्व आयोग के नोटिसों को पर्याप्त महत्व नहीं देता। इन नोटिसों और दिशानिर्देशों को अदालतों में चुनौती भी दी जाती है। जो बात चुनाव आयोग के पक्ष में जाती है वह यह कि आयोग अपने सख्त रुख पर अडिग रहा और पक्ष-विपक्ष की चिंता किए बगैर आचार संहिता के उल्लंघनों पर त्वरित प्रतिक्रियाएं देता रहा। आयोग को भविष्य में भी इन बातों का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि उसके निष्पक्ष रहने जितना ही जरूरी है उसका निष्पक्ष दिखना।चुनाव आयोग अगर इन मुद्दों पर भी गंभीर रहे तो चुनाव की गुणवत्ता और स्ट्रॉन्ग होगी।फिलहाल तो मतदाताओं का मत ईवीएम के पिटारे में बंद है जो चार जून की सुबह ही खुलेगा और तब ही इन चुनावी पूर्वानुमानों की सत्यता का पता लगेगा।(विफी)