पर्व: लो आ गई होली

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-अनिल ‘अंजुमन’

लो फिर आ गई होली। महीने गुजरे, सप्ताह गुजरे, दिन गुजरे और एक-एक मिनट टिक-टिक करती घड़ी की सुई आखिर आ पहुंची वहां पर जहां इस घड़ी की सुई के पहुंचने का इंतजार था। हजारों, लाखों, करोड़ों लोगों को कि कब आयेगी ये बेला जिसे हम सभी भारतीय बड़े प्यार से नाम देते हैं होली। यूं तो कहने को यह त्यौहार है हिंदुओं का, लेकिन आज के अखंड भारत में कहीं ऐसा देखने-सुनने से लगता ही नहीं है कि यह त्यौहार महज एक ही धर्म या सम्प्रदाय का है।

हर धर्म, वर्ग और सम्प्रदाय के मानने वाले लोग बड़े ही हर्षोल्लास से मनाते हैं होली। इंतजार करते हैं कि कब आयेगी होली और कब छूटेगी पिचकारी से गोली। देवर-भौजाई, जीजा-साली, यार-दोस्त होली की भावनाओं से ओत-प्रोत लालायित रहते हैं एक-दूसरे के तन-मन रंगने-रंगाने को। न झिझक, न सामाजिक मर्यादाओं के किले की सीमायें और न कठोर आदेशों का खौफ बस मस्ती-मस्ती और मस्ती। गली, मोहल्ला, गांव, शहर हर जगह मस्ती का आलम न काम पर जाने की परवाह, न खाना खाने की चिंता, न पढऩे की जिज्ञासा और न सोने का झंझट एक ही ललक है, उत्सुकता है कब मिले मौका, कब पहुंचे प्रेमी अपनी प्रेमिका के पास, देवर भौजाई के पास, जीजा साली के पास और करने लगे प्रहार रंगों के, रंग दे उसे ऊपर से नीचे तक लाल, हरे, नीले, पीले रंग में और मजा चखाये होली का और कर दे सराबोर अपने प्यार के रंग से मौसम फागुन का खेलकर होली। गाने फाग सुबह से निकले घर से, न जाने कब लौटेंगे वापस कोई नहीं परवाह बस मस्ती होली और मस्ती। आखिर क्यों न खेलें रोज-रोज थोड़े ही आता है यह त्यौहार। बूढ़े, बच्चे, मर्द, औरत, स्वस्थ, बीमार सभी का मन होली में रंग जाने को चाहता है। धूम मचाते हुल्लड़ करते दरवाजे-दरवाजे खाते-पीते मौज-मस्ती करते, गुजिया खाई तो खाई नहीं तो रख ली जेब में उसमें रंग रखकर दे दी अपने चहेते को और खाते ही मुंह में रंग और थू-थू करते देख हंसी से लोट-पोट हो जाना। बंदर-लंगूर की शक्लें बाप को बेटा, दोस्त को दोस्त पहचान में नहीं आता बस निगाहें देखती हैं तो रंग होली के और आवाज पहचानती हैं कि यह है कौन मेरा सगा अपना यही है होली की खासियत।

ऐसा लगता है कि चलती रहे होली कभी न खत्म हो रंग होली के दंग मस्ती के, न कोई चिंता हो न परवाह बस घूमे फिरें और खेलें होली। दफ्तर-स्कूल नौकरी-चाकरी के झंझट से मुक्ति और खेल लें होली, इसके, उसके और न जाने किस-किसके साथ। रंगों की होली, कीचड़ की होली और… और प्यार की होली। लगाया रंग और हो ली होली। कितने मनमोहक होते हैं नजारे होली के इतना इंतजार तो नहीं होता बालाओं को डोली का जितना होता है होली का। खुशनुमा वातावरण रंगों से भरी नालियों को देखकर लगता है क्या यह नजारा इंद्रपुरी का है। धूम पिचक धूम, होली खेलें झूम वाह! तबियत खुश क्यों न हो आखिर होली का अपना अलग ही अंदाज है। कहते भी तो हैं माथे पे रोली यह भी कोई होली, होली तब है होली जब पिचकारी से छूटे गोली, दिल कहे यही है होली। बसंत के बाद सर्दी को अलविदा कहने के साथ ही आती है यह दिल को छू लेने वाली घड़ी। जिसमें नाचे मन मयूर सा और बिन बदरा बारिश के भीग जाएं वो भी रंगीले पानी से, बन के छैल-छबीले कुछ-कुछ भंगीले, चाहे हैं शरमीले, लेकिन रंग गये लाल, हरे, नीले, पीले क्योंकि होली है भई होली है बुरा न मानो होली है। बदमाशियां करने का सुनहरा मौका। जो जिससे कहना है कह दिया दिल खोल के और बाद में माफी मांग ली क्योंकि हमने तो पहले ही कह दिया है होली है भई होली है बुरा न मानो होली है। धूम मचाती टोलियां बोले मनमानी बोलियां, छोड़ते हुए रंगों की गोलियां जा पहुंचे आला-अफसरों के पास नेता-अभिनेता आज किसी को नहीं छोडऩा। अधिकारी-कर्मचारी चाहे रिश्वत-खोर ही क्यों न हो लेकिन आज तो रिश्वत भी देंगे वो भी मजे ले-लेकर प्यार से होली के रंगों से रंगीं। आपसी बैर-भाव को भुलाकर, दोस्ती के पैगाम सुनाकर, अपना सब कुछ लुटाकर चले हैं खेलने होली, हर वर्ग की टोली, सीधी-सादी भोली रंगों की पुडिय़ा खोली और खेल ली होली और कह दिया हो ली होली। न गुजर जाए यह क्षण, यह वक्त, न जाने फिर कब आयेगा फागुन और आयेगी होली। काश! रोज-रोज आती होली और हम कहते लो आ गई होली। (विफी)