–सुशील उपाध्याय
एक युद्ध यूक्रेन में लड़ा जा रहा है और दूसरा मीडिया माध्यमों पर जारी है। कौन-सी लड़ाई सच्ची और कौन-सी झूठी, इसका निर्णय करना वास्तव में कठिन है। खासतौर से मीडिया पर प्रस्तुत सूचनाएं वस्तुस्थिति को स्पष्ट करने की बजाय ज्यादा जटिल बना देती हैं। यदि एक ही दिन में रूस का आरटी चैनल, चीन का सीजीएटीएन देखें तो युद्ध हर तरह से अनिवार्य दिखाई देगा। इसके उलट फ्रांस का फ्रांस 24, इंग्लैंड का बीबीसी चैनल देख लें तो लगेगा कि दुनिया में पुतिन से ज्यादा बड़ा कोई दूसरा गुनाहगार नहीं है। वस्तुतः युद्ध जब अपने चरम की ओर बढ़ता है तो वहां सभ्य दुनिया का कोई नियम मौजूद नहीं रहता। देर-सवेर ये यूक्रेन-रूस युद्ध में भी देखने को मिलेगा, लेकिन जब एक जैसी घटना या निर्णय को दो अलग एंगल से प्रस्तुत किया जाता है, तब लगता है कि युद्ध के कई छिपे हुए पहलू भी होते हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति ब्लादीमीर जेलेंस्की ने दुनिया भर के लोगों का आह्वान किया कि वे रूस से लड़ने के लिए यूक्रेन की सेना में शामिल हों।
उन्होंने कथित अंतरराष्ट्रीय सेना बनाने की बात कही। बताया गया है कि युद्ध शुरू होने के पहले दस दिन में ही इस सेना में 16 हजार लोग शामिल हो गए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अमेरिका के 3 हजार लोगों ने भी इस सेना में शामिल होने के लिए आवेदन किया है। ये सब भाड़े के सैनिक हैं। पश्चिमी मीडिया ने इस खबर को इस तरह से प्रस्तुत किया है कि ये भाड़े के सैनिक यूक्रेन के लिए मुक्ति-योद्धा हैं। इसके समानांतर रूस ने अपने मित्र देशों, खासतौर से सीरिया से सैनिकों की भर्ती शुरू की क्योंकि वे शहरों के अंदर लड़ने में ज्यादा सक्षम हैं। इस खबर पर पश्चिमी मीडिया ने बहुत तीखी टिप्पणियां की हैं। चूंकि, भारतीय मीडिया प्रायः पश्चिमी मीडिया का ही अनुसरण करता है इसलिए भारत में अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भाषाओं के समाचार माध्यमों में रूस द्वारा भाड़े के सैनिकों की भर्ती को सनसनीखेज खबर की तरह परोसा गया है। यह बताया गया है कि सीरियाई लड़ाकों की आमद ने यूक्रेन भयावह जगह बन जाएगा। लेकिन, सवाल यह है कि जिन 16 हजार विदेशी लड़ाकों की भर्ती यूक्रेन ने की है क्या उनके कारण यूक्रन स्वर्ग बन जाएगा ?
युद्ध के बारे में एक बहुत मशहूर कथन है कि युद्ध में सबसे पहले ‘सत्य’ की हत्या होती है। इसके बाद की हत्याओं को गिनने की जरूरत ही नहीं रहती क्योंकि इन हत्याओं को एक पक्ष ‘शहादत’ और दूसरा ‘कत्लेआम’ करार देता है। इस वक्त चिंता की बात यह है कि मीडिया ने भी अपने पक्ष का निर्धारण कर लिया है और वह पक्ष निष्पक्षता और तटस्थता नहीं है, बल्कि अपने पंसद के समूह के पक्ष में खड़ा होना है। ऐसे में, इस बात की उम्मीद नहीं बचती है कि मीडिया का पेशेवर चरित्र बचा रह सकेगा और सरकारें उसे अपने हित में इस्तेमाल नहीं कर सकेंगी। ऐसा लगता है कि इस युद्ध में मीडिया के बीच स्याह-सफेद का अंतर ही खत्म हो गया है। रूस तथा उसके समर्थक देशों का मीडिया जिस सच को दिखा रहा है, उस सच को पश्चिम स्वीकार नहीं कर रहा है और अमेरिका तथा पश्चिमी देशों ने इन मीडिया माध्यमों के प्रसारण को अपने यहां रोक दिया है। इसके जवाब ने रूस ने मीडिया से संबंधित एक कड़ा कानून बना दिया, जिसमें सेना के बारे में गलत सूचनाएं देने पर 15 साल तक की सजा का प्रावधान है। इसके बाद बीसीसी, सीएनएन और डीडब्ल्यू आदि ने रूस से अपना तामझाम समेट लिया है। अब ये सब रूस की सीमाओं परे अपने ‘कम्फर्ट जोन’ में खड़े होकर वैसे ही रिपोर्टिंग कर रहे हैं जैसे कि जी न्यूज हिंदी के सुधीर चैधरी पोलेेंड की सीमा से यूक्रेन का युद्ध दिखा रहे हैं।
गलत सूचनाएं और दुष्प्रचार हमेशा से ही युद्ध का हिस्सा रहे हैं, इसके बावूजद मीडिया के भीतर सही और गलत को लेकर एक समझ भी मौजूद रही है। इस बार गलत सूचनाओं और दुष्प्रचार ने मीडिया की समझ को गहरी चोट पहुंचाई है। चूंकि, बीते कुछ दशकों में सूचनाओं के चयन और उन्हें पाठकों/दर्शकों तक पहुंुचाने का काम संपादकों-पत्रकारों की बजाय मीडिया मालिकों और न्यूज मैनेजरों के पास है इसलिए पाठक या श्रोता के सामने सही सूचना हासिल कर पाना एक बड़ी चुनौती बन गई है। इस युद्ध के दौरान एक और बात परेशान करने वाली ये है कि युद्ध के दृश्य ठीक ऐसे प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जैसे वे किसी मनोरंजक फिल्म का हिस्सा हों। इस युद्ध ने नए सिर से इस बात को स्थापित किया है कि मीडिया उतना स्वतंत्र नहीं है, जितना कि वह अपने आदर्श रूप में दिखाया जाता है या फिर जितनी कि उससे उम्मीद की जाती है। आम लोगों के बीच इसलिए भी भ्रम की स्थिति है कि एक पक्ष के समर्थक मीडिया घराने जिस सूचना को सही बताते हैं, दूसरा पक्ष उन सूचनाओं और घटनाओं को गलत साबित करने में जान लगा देता है। पश्चिमी मीडिया के सच को देखना हो तो कुछ दिन के लिए बीबीसी हिंदी पोर्टल और डीडब्ल्यू हिंदी पोर्टल की खबरों को ट्रैक कीजिए तो साफ पता चलेगा कि ये नामी संस्थाएं भी अपनी सरकारों के भोंपू की तरह ही व्यवहार कर रही हैं। इन माध्यमों पर यूक्रेन से बच निकलने के दौरान गैर यूरोपीय और अश्वेत लोगों के साथ किस प्रकार भेदभाव किया गया है, इसकी खबरें न बराबर दिखाई देंगी, जबकि ऐसा नहीं है कि युद्ध के दौरान नस्लीय भेदभाव नहीं हुआ है।
इस संदर्भ में भारतीय मीडिया, खासतौर से टीवी चैनलों और उनके एंकरों की स्थिति लगभग हास्यास्पद है। लगभग इसलिए कि अपवाद हर जगह हो सकते हैं। कई चैनलों के रिपोर्टर जिस भाषा और लहजे के साथ खबरें परोस रहे हैं, वह केवल चिंताजनक ही नहीं, बल्कि खेदजनक भी है। हिंदी टीवी चैनलों पर महायुद्ध, शंखनाद, विश्व युद्ध जैसे विशेषणों की भरमार है। चूंकि, भारतीय चैनलों की फीडिंग पश्चिमी स्रोतों से हो रही है इसलिए रूस के खिलाफ निगेटिव टोन को साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। रही-सही कसर सरकार की भक्ति के कारण पूरी हो जाती है। अंततः हमारे चैनलों का चरित्र सूचना की आड में मनोरंजन पेश करने वालों का बन जाता है। सारतः ये दौर लोगों को ही नहीं, बल्कि सत्य को भी भरमाने का दौर है। ऐसे में सही सूचना हासिल करना रेगिस्तान में मीठे पाने के स्रोत को पा लेने जैसा ही है( लेखक के विचार)