धर्म-कर्म: वचन निभाने दो सौ वर्षो से भगवान जगन्नाथ आते हैं मानौरा

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-अंजनी सक्सेना

भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का महोत्सव पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है।सारे देश में आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को हर्षोल्लास से रथयात्रा निकाली जाती है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के नजदीक विदिशा जिले के मानौरा गांव में भी यह रथ यात्रा धूमधाम से निकाली जाती है,लेकिन यहां यह उत्सव इसलिए विशिष्ट और अलग है कि यहां यह आरंभ ही तब होता है जब पुरी में भगवान जगन्नाथ के रथ के पहिए थम जाते हैं। यहाँ लगभग 200 वर्षों से यह परम्परा चल रही है।जब हमारे देश में संचार के साधन सीमित थे और रेडियो, टीवी जैसी चीजों का नामों निशान ही नहीं था,तब भी यही कहा जाता था कि भगवान जगन्नाथ मानौरा आने के लिए पुरी में अपने रथ का पहिया रोक लेते हैं।

मानौरा मध्यप्रदेश के विदिशा जिले का एक सामान्य सा गांव होते हुए भी विशिष्ट है। यहाँ मेहमानों का अभिवादन भी जय जगदीश कह कर किया जाता है। यहां भगवान जगन्नाथ ( जिन्हें मानौरा में जगदीश कहते हैं), भगवान बलभद्र एवं देवी सुभद्रा का दो सौ वर्ष पुराना मंदिर है । पुरी की ही तरह यहां भी आषाढ़ दूज पर रथयात्रा निकाली जाती है। यहां की रथयात्रा सबसे अनोखी इसीलिए मानी जाती है कि यहां यह रथयात्रा प्रारंभ तभी होती है जब पुरी में भगवान जगन्नाथ के रथ के पहिए थमे होते हैं। इस दृश्य को देखने के लिए मानौरा में प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है।
मानौरा में भगवान जगदीश स्वामी का अति प्राचीन मंदिर है।जिसमें भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा के श्री विग्रह स्थापित हैं।चंदन की बनी ये प्रतिमाएं स्वयंभू हैं,वे यहां स्वयं प्रगट हुई हैं। जगन्नाथ पुरी की ही तरह यहां भी इन तीनों की पूजा आराधना की जाती है तथा मीठे भात (चावल)का भोग लगाया जाता है।

मानौरा के जगदीश मंदिर में प्रतिदिन तो सैकड़ो लोग आते हैं और यहां अपनी अपनी मन्नत मांगते है लेकिन रथयात्रा महोत्सव में यहां लाखों लोग आते हैं और जगदीश जी के दर्शन करते हैं। इस दिन यहां चारों ओर जय जगदीश का ही उद्‌घोष सुनायी देता है। इसमें दिलचस्प यह भी है कि जब उड़ीसा में पुरी में रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ के रथ के पहिए कुछ क्षणों के लिए थमते हैं तो वहां के पुजारी बाकायदा घोषणा करते है कि भगवान मानोरा पधार गए हैं।

मानोरावासियों का मानना है कि जब पुरी का रथ थमता है, तो भगवान जगदीश स्वामी स्वयं पुरी से मानौरा आ जा जाते हैं।

*भगवान मानौरा क्यों आते है ?*

मानौरा के ग्रामीण और पुराने लोग बताते हैं कि भगवान जगदीश के मानौरा पधारने के पीछे भी एक इतिहास है। वर्षों पूर्व मानौरा के तरफदार मानिकचंद रघुवंशी निसंतान थे उनकी पत्नी देवी पद्‌मावती इससे बहुत दुखी रहा करती थीं।इन दोनों पति पत्नी की भगवान जगदीश में घनघोर आस्था थी। दोनों ने पिंड भरते हुए (दंडवत करते हुए यात्रा करने को मानौरा एवं विदिशा जिले में पिंड भरना कहा जाता है।)भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए पुरी जाने का निश्चय किया।मानौरा से दंडवत करते हुए दोनों पति पत्नी जगन्नाथ पुरी चल पड़े। दुर्गम रास्ते और कांटेदार जंगलों में चलते चलते उनका पूरा शरीर लहुलुहान हो गया लेकिन इस दंपत्ति ने हार नहीं मानी और तब भगवान जगन्नाथ ने स्वयं प्रगट होकर इन्हें वापस मानौरा लौटने को कहा । अपने भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर हर वर्ष मानौरा में दर्शन देने का भी वचन दिया । तभी मानौरा में भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा की मूर्तियां भी प्रगट हुई। भक्त मानते हैं कि अपने वचन को निभाने के लिए जगदीश जी मानौरा में प्रगट हुए और हर वर्ष आषाढी दूज को रथयात्रा के दिन अपने भक्तो को दर्शन देने मानौरा पधारते हैं।

*अपने आप खुलते हैं मंदिर के द्वार*

मंदिर के पुजारी बताते हैं कि रथयात्रा की पूर्व संध्या पर भगवान को भोग और शयन आरती के बाद रोज की तरह मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं लेकिन रथयात्रा वाले दिन सुबह यह पट अपने आप खुले हुए मिलते हैं। रथयात्रा के लिए जब भगवान को रथ में सवार कराया जाता है तब अपने आप हल्का सा कंपन होता है या रथ अपने आप लुढ़कने लगता है। पुजारी का कहना है कि ठीक उसी समय पुरी में भगवान जगन्नाथ के रथ के पहिए थम जाते हैं और वहां के पुजारी घोषणा करते है कि भगवान मानौरा पधार गए हैं।

*चढ़ता है अटका*

मानौरा मंदिर में जगदीश जी की पूजा पुरी में भगवान जगन्नाथ की तरह ही की जाती है। यहां भी मिट्टी की हंडियों में मुख्य पुजारी द्वारा मीठे चावल (भात) बनाये जाते हैं। श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी होने पर भी भगवान को अटका (मीठे भात का भोग) अर्पित करते हैं।
मानौरा के भगवान जगदीश के प्रति श्रद्धालुओं की श्रद्धा का दृश्य आज भी अद्धभुत एवं अनुपम होता है।यहाँ आसपास के सैकड़ों गांवो के लोग कीचड़ भरे दुर्गम पथरीले कंकड़ पत्थरों से भरे रास्ते पर पिंड भरते हुए या नंगे पैर पदयात्रा करते हुए आते हैं। कीचड़ सने पथरीले रास्तों पर इन श्रद्धालुओं के श्रद्धा और विश्वास को देखते हुए बरबस ही आंखे नम हो जाती हैं और सहसा ही हाथ ऐसे श्रद्धालुओं के सम्मान में जुड़ जाते हैं जिन्हें न अपने शरीर की सुध है न हाथ पैरों के छिलने की चिंता है और न ही भूख प्यास की परवाह वे तो सिर्फ एक ही धुन में मगन हैं- जय जगदीश, जय जगदीश।(विफी)